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काम के अधिकार को खत्म करने का प्रयास




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पिछले दिनों संसद में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए हमारे कृषि व ग्रामीण विकास मंत्री नरेंद्र तोमर ने कहा कि सरकार मनरेगा को हमेशा के लिए चलाने के पक्ष में नहीं है. उनके अनुसार यह गरीबों के लिए एक योजना है. उनकी सरकार देश से गरीबी ही हटा देगी इसलिए मनरेगा लम्बे समय तक नहीं चलाया जाएगा. यह बहुत ही गंभीर व चिंताजनक संकेत है जो हमारे संसद में दिया गया है, वो भी उस समय जब देश अभूतपूर्व बेरोजगारी व कृषि संकट से गुजर रहा है. देश की आबादी का बड़ा हिस्सा कुपोषण का शिकार है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस)-4 की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2015-16 में देश में 38.4% बच्चे छोटे कद के थे, 35.8% बच्चे कम वजन के और 53% महिलाओं में खून की कमी थी. इस कुपोषण का मुख्य कारण है काम का आभाव. ऐसे समय में संसद में मनरेगा पर गंभीर चर्चा (जिसमें मनरेगा के लिये कम बजट पर वाजिब चिंता जताई गई थी) में हिस्सा लेते हुए माननीय मंत्री जी का बयान ग्रामीण जनमानस में गंभीर चिंता पैदा करता है.

वर्तमान सरकार का रवैया, मनरेगा को लेकर जगजाहिर है. यह बात इस वजह से और भी सोचनीय है क्योंकि इस समझ के कारण इस कानून के क्रियान्वन करने की मूल अवधारणा व परिपेक्ष ही कमजोर हो जाता है. इससे पहले हमारे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी ने संसद में एक हल्का बयान दिया था. 12 मार्च 2015 को बजट सत्र में उन्होंने कहा था, “क्या आपको लगता है कि मैं इस योजना का अंत कर दूंगा. मेरी राजनीतिक बुद्धि मुझे ऐसा करने की अनुमति नहीं देती है. यह 60 वर्षों में गरीबी से निपटने में आपकी (कांग्रेस) विफलता का एक जीवित स्मारक है. मैं इस योजना को गीत नाच और ढोल नगाड़ों के साथ जारी रखूंगा”.

मनरेगा, जिससे ग्रामीण भारत में करोड़ो परिवारों का जीवन चलता है, के बारे में प्रधान मंत्री की ऐसी समझ जनता में निराशा और चिंता बढ़ाती है. यह ग्रामीण भारत के विकास के रस्ते के सन्दर्भ में भी सरकार की कमजोर समझ की परिचायक है.

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण अधिनियम एक कानून है न कि योजना

मनरेगा को वर्तमान सरकार समझने में मूल रूप से ही गलत रही है. महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण अधिनियम एक कानून है जिसे भारत की संसद द्वारा बनाया गया है. इसके पीछे जनता के एक लम्बे संघर्ष और अपार आशाओं की गाथा है. यह कोई कार्यक्रम, योजना अथवा अभियान नहीं है जैसा हमारे नेताओं के वक्तव्यों से झलकता है. कोई कार्यक्रम, योजना अथवा अभियान कभी भी बंद किये जा सकते हैं परन्तु संसद की ओर से पारित कानून आने जाने वाली सरकारों व उनके नेताओं की इच्छा पर निर्भर नहीं करते. मनरेगा के तहत किसी भी चुनी हुई सरकार की बाध्यता है कि वह ग्रामीण नागरिकों को काम उपलब्ध करवाए.

ऐसा न होने पर कोई भी ग्रामीण नागरिक अदालत के दरवाजे पर दस्तक दे सकता है. काम देने में असफल रहने पर सरकार को कानूनी मजबूरी के चलते बेरोजगारी भत्ता देना होगा वो भी तय समय सीमा में. काम के अधिकार के साथ-साथ मनरेगा का दूसरा मुख्य लक्ष्य है ग्रामीण क्षेत्र में आधारभूत संरचना बनाना, कृषि भूमि का विकास, जल संरक्षण. कल्पना की गई थी कि पंचायत के लोग ग्राम सभा के माध्यम से अपनी पंचायत में होने वाले कामों की योजना बनाएंगे. यह काम उसी पंचायत के लोगों द्वारा किये जायेंगे. परन्तु वर्तमान समय में यह दोनों महत्वपूर्ण पक्ष, काम का अधिकार और ग्रामीण क्षेत्र का योजनाबद्ध विकास, मनरेगा के क्रियान्यवन से गायब है और इसे केवल अन्य किसी कल्याणकारी योजनाओं की तरह समझा व लागू किया जा रहा है.

मनरेगा के कुछ सुखद अनुभव

मनरेगा की सफलता के कुछ पहलू हम आर्थिक तथा कृषि संकटग्रस्त पिछले कुछ वर्षों में देख चुके हैं, जब ग्रामीण भारत में जनता की अजीविका के मुख्य साधन के रूप में मनरेगा उभरा है. अध्ययन यह बताते हैं कि भारत में जहां सही तरीके से इस कानून को लागू किया गया वहां गरीबी उन्मूलन तथा मजदूरी के दाम में बढ़ोत्तरी के लिए मनरेगा ने निर्णायक भूमिका निभाई है. त्रिपुरा इसका एक बेहतरीन उदाहरण है जहां मनरेगा को प्रभावशाली ढंग से लागू किया गया है. जिसके चलते गरीबी को कम करने और लोगो के जीवन स्तर को सुधारने में बेहतरीन परिणाम दिखे हैं.

वर्ष 2004-2005 में त्रिपुरा में 45.5% जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे थी, जो वर्ष 2009-10 में कम होकर 19.8% रह गई. राज्य सरकार के अन्य प्रयासों के साथ मनरेगा की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है. यह इस कानून की संभावनाओं और क्षमताओं का परिचायक है. ऐसा ही एक उदाहरण नेशनल काउंसिल फॉर एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) की रिपोर्ट से मिलता है जिसके अनुसार, 2004-05 के बाद से गरीबी में आई कमी के लिए कम से कम 25% जिम्मेदारी मनरेगा की है.

यह तब है जब एक परिवार को प्रतिवर्ष केवल 100 दिन का रोजगार मिलता है न की परिवार के प्रत्येक सदस्य को. समाज के समावेशी विकास में भी मनरेगा का महत्वपूर्ण योगदान है क्योंकि इसमें काम करने वालो में सामाजिक और आर्थिक तौर से वंचित समुदायों के मज़दूरों की भागीदारी ज्यादा है. वर्ष 2012 में अनुसूचित जाति का प्रतिशत कुल आबादी में 17.82 था परन्तु उनकी मनरेगा के काम में भागीदारी 22.02 प्रतिशत थी. इसी तरह अनुसूचित जनजाति के लोगो की भागीदारी मनरेगा के काम में 18.25 प्रतिशत थी जो उन की कुल आबादी में हिस्सेदारी 10.63 प्रतिशत से कहीं ज्यादा है. महिलाओं की भागीदारी भी मनरेगा में उत्साहवर्धक हैं. इससे स्पष्ट होता है कि समाज में हाशिये पर धकेले गए लोगों की अजीविका सुनिश्चित करने के लिए मनरेगा बहुत महत्वपूर्ण है. इसलिए आवश्यकता है इससे मजबूत करने की.

वर्तमान समय में मनरेगा की अधिक जरूरत

वर्तमान में हमारा देश एक विशेष दौर से गुजर रहा है जब ग्रामीण भारत विशेष तौर पर दो प्रमुख चुनौतियों का सामना कर रहा है. कृषि संकट और बेरोजगारी. यह दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं. कृषि संकट के चलते ज्यादा से ज्यादा किसान काश्तकारी से दूर होते जा रहे हैं और ग्रामीण मजदूरों की लम्बी कतार में जुड़ते जा रहे है. ऐसे समय में औद्योगिक विकास भी वांछित रोजगार उत्पन्न करने में अक्षम है. परिणाम स्वरूप एनएसएसओ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में बेरोजगारी की दर 45 वर्षों की उच्चतम दर 6.4 प्रतिशत पर पहुंच गई है. यह एक विस्फोटक स्थिति है जो एक गहरे आर्थिक संकट की तरफ इशारा कर रही है. मनरेगा के तहत प्रत्येक परिवार के लिए 100 दिन का रोजगार ना केवल उस परिवार के लिए राहत है बल्कि लोगों की क्रय शक्ति बढ़ने से यह देश की आर्थिकी में भी ऊर्जा भरने का काम करता है.

चिंताजनक स्थिति

उपरोक्त समझ के विपरीत वर्तमान सरकार मनरेगा का सकारात्मक उपयोग करने में विफल रही है. वहीं ठीक इसके विपरीत सरकार के प्रयास मनरेगा को कमजोर करने के ही रहे हैं. पिछले पांच वर्षों में तमाम दावों के बावजूद मनरेगा के लिए बजट की कमी लगातार बनी रही है. इस वर्ष भी (2019-2020) के बजट में केवल 60,000 करोड़ रुपये मनरेगा के लिए आवंटित किये गए है जो पिछले वर्ष से 1084 करोड़ रुपये कम है. लम्बे समय से मनरेगा के लिए बजट इसके आस पास ही चल रहा है जिसके चलते प्रतिवर्ष 20-30% देनदारियां राज्यों पर बकाया रह जाती हैं, जो अगले वर्षों के खाते में जुड़ती जाती है. परन्तु इसके लिए अतिरिक्त बजट का कोई प्रावधान नहीं होता है. प्रत्येक आवेदक परिवार को 100 दिन प्रतिवर्ष रोजगार उपलब्ध करवाने में भी बजट की कमी एक महत्वपूर्ण बाधक बनी हुई है.

वर्ष 2017 -2018 में औसतन रोजगार 45 दिन प्रति परिवार मिला था. अब ना केवल कम दिन रोजगार मिल रहा है अपितु बहुत बड़ी संख्या में आवेदक काम से महरूम भी रह रहे हैं. वर्ष 2017-2018 में ही कुल 8.4 करोड़ परिवारों ने काम के लिए आवेदन किया था जिसमें से 7.2 करोड़ परिवारों को ही काम मिल पाया और कुल आवेदकों के 15% (1.2 करोड़) परिवारों को एक भी दिन रोजगार नहीं मिला और न ही बेरोजगारी भत्ता. उपरोक्त स्थिति दर्शाती है कि वर्तमान सरकार मनरेगा को उसकी मूल अवधारणा के विपरीत अनमने ढंग से लागू कर रही है. एक कदम आगे जाकर इस जनपक्षीय कानून को खत्म करने की कोशिश कर रही है और तोमर जी का बयान इसी और इशारा करता है. भारत की मेहनतकश जनता जिसने अपार संघर्षो और बलिदानों से काम के अधिकार, जी हां काम करने के कानूनी हक को हासिल किया है, इसे कतई सहन नहीं करेगी. यह बात भी सच है कि मनरेगा को सुचारू तरीके से लागू करने के लिए कई कठिनाईयां हैं, तकनीकी दिक्कते हैं, ठेकेदारों का प्रधानों के साथ गठजोड़ है, भ्रष्टाचार है परन्तु जनता की भागीदारी, दबाव व राजनीतिक इच्छाशक्ति की बदौलत इन सबसे लड़ा जा सकता है.

वर्तमान में लगभग 38% ग्रामीण जनता गरीब है (यह आधिकारिक आंकड़े है और असल आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा है) वर्ष 2011 की मतगणना के अनुसार भारत में 75% गरीब लोग ग्रामीण भारत में है. बेरोजगारी और कम उत्पादकता इस ग्रामीण भारत में गरीबी का मुख्य कारण है. ग्रामीण गरीब के लिए कृषि संकट के समय में काम ढूंढना मुश्किल हो गया है. कृषि के तहत जमीन में लगातार कमी हो रही है. ऊपर से पिछले कुछ वर्षों से देश का एक बड़ा हिस्सा सूखे की चपेट में है. ऐसी स्थिति में रोजगार के नए अवसर पैदा करने में मनरेगा की बहुत बड़ी भूमिका है. इस काम के जरिए भूमि सुधार और जल संरक्षण के माध्यम से कृषि उपज बढ़ाई जा सकती है और संकट में चल रही ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सही पटरी पर लाया जा सकता है. बस जरूरत है सरकार के सही दृष्टिकोण और जनता के सतत दवाब की.