Home समाचार विक्रांत निर्मला सिंह – सच्चाई खुली तो किसान आंदोलन बनेगा जनांदोलन…

विक्रांत निर्मला सिंह – सच्चाई खुली तो किसान आंदोलन बनेगा जनांदोलन…




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नई दिल्ली: तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसान प्रदर्शन कर रहे हैं। लेकिन कृषि कानून सिर्फ किसानों की समस्या नहीं हैं। यह निम्न और मध्यम वर्ग की भी समस्या हैं। पहला कानून कृषि मंडियों की प्रासंगिकता को खत्म कर देगा। दूसरा कानून कांट्रेक्ट फार्मिंग के जरिये देश के 14 करोड़ किसान मजदूरों के समक्ष बेरोजगारी का संकट उत्पन्न कर देगा। तीसरा कानून महंगाई का दस्तावेज है जो मध्यम और निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए बड़ा संकट बनने जा रहा है।

तेज होगी आंदोलन की रफ्तार

आने वाले समय में जब ये दोनों वर्ग भी खुद को इन कानूनों के जरिए ठगा महसूस करेंगे तो आंदोलन की रफ्तार और तेज हो जाएगी। ये बात काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के फाइनेंस एंड इकनॉमिक थिंक काउसिंल के संस्थापक एवं अध्यक्ष विक्रांत निर्मला सिंह ने अपने अध्ययन के निष्कर्षों के आधार पर कही हैं।

आज का चक्का जाम किसानों के आंदोलन की एक कड़ी है। दिल्ली के सिंघु और गाजीपुर बॉर्डर पर किसान बीते ढाई महीने से आंदोलित हैं और वे तीनों कृषि कानूनों को वापस लिए जाने की मांग कर रहे हैं।

एक बातचीत में विक्रांत निर्मला सिंह कहते हैं वर्तमान कृषि आंदोलन को एक विशेष राज्य और एक विशेष समूह तक सीमित बताया जा रहा है। यह बात सही भी है क्योंकि वर्तमान कृषि आंदोलन पंजाब और हरियाणा के किसानों के बीच अधिक दिख रहा है।

कानूनों का सबसे अधिक प्रभाव पंजाब और हरियाणा में

वह कहते हैं कि इसका एक ठोस कारण यह भी है कि इन तीनों कृषि कानूनों का सबसे अधिक प्रभाव पंजाब और हरियाणा में ही रहने वाला है। पंजाब और हरियाणा में देश की सबसे अधिक कृषि मंडियां हैं और वहां के किसान मंडियों के जरिये एमएसपी के लाभ को जानते हैं। बाकी देश के अन्य हिस्से जिनमें प्रमुख रूप से उत्तर प्रदेश और बिहार के किसानों को कृषि की मूलभूत जरूरतों और कृषि मंडियों से दूर रखा गया।

फाइनेंस एंड इकनॉमिक थिंक काउसिंल के संस्थापक कहते हैं ऐसा इसलिए है क्योंकि हमेशा से इस आर्थिक सोच को प्रभावी बनाना था कि कृषि एक लाभ का क्षेत्र नहीं है और कभी भी किसानों को एक बड़ी ‘बारगेनिंग पावर’ नहीं बनने देना था

सामान्य जन के लिए होंगे चुनौती का कारण

वह कहते हैं कि आज यह सफल होता भी दिख रहा है, लेकिन, तीनों नए कृषि कानून सिर्फ किसानों के नजरिए से विरोध का कारण नहीं हैं, बल्कि यह सामान्य जन के लिए भी निकट भविष्य में चुनौती का कारण बन सकते हैं।

उनके मुताबिक पहला कानून जिसका नाम ‘कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020’ है, यह कानून निकट भविष्य में सरकारी कृषि मंडियों की प्रासंगिकता को शून्य कर देगा।

वह कहते हैं कि सरकार निजी क्षेत्र को बिना किसी पंजीकरण और बिना किसी जवाबदेही के कृषि उपज के क्रय-विक्रय की खुली छूट दे रही है। इस कानून की आड़ में सरकार निकट भविष्य में खुद बहुत अधिक अनाज न खरीदने की योजना पर काम कर रही है।

उनके मुताबिक सरकार चाहती है कि अधिक से अधिक कृषि उपज की खरीदारी निजी क्षेत्र करें ताकि वह अपने भंडारण और वितरण की जवाबदेही से बच सके।

विक्रांत निर्मला सिंह कहते हैं कि सोचिए कि अगर निकट भविष्य में कभी कोरोना जैसी विषम परिस्थिति का सामना करना पड़ा तो उस दौरान सरकार खुद लोगों को बुनियादी खाद्य सामग्री उपलब्ध कराने के लिए निजी क्षेत्र से खरीदारी करेगी।

नया बाजार इनकी प्रासंगिकता को खत्म कर देगा

वहीं, आज वह इसे अपने बड़े एफसीआई गोदामों से लोगों को मुफ्त में उपलब्ध करा रही है। साथ ही सरकारी कृषि मंडियों के समानांतर आसान शर्तों पर खड़ा किया जाने वाला नया बाजार इनकी प्रासंगिकता को खत्म कर देगा और जैसे ही सरकारी मंडियों की प्रासंगिकता खत्म होगी, ठीक उसी के साथ एमएसपी का सिद्धांत भी प्रभावहीन हो जाएगा क्योंकि मंडियां एमएसपी को सुनिश्चित करती हैं।

दूसरे कानून ‘कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत अश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक, 2020 के संबंध में वह कहते हैं कि इसकी अधिक चर्चा कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के विवाद में समाधान के मौजूदा प्रावधानों के संदर्भ में की जा रही है। इस कानून का पूरा विरोध इस तथ्य पर हो रहा है कि इसके जरिए किसानों को विवाद की स्थिति में सिविल कोर्ट जाने से रोका गया है।

किसानों का बिल्कुल ठीक विरोध है

आर्थिक विचारक कहते हैं कि किसानों का बिल्कुल ठीक विरोध है। लेकिन, इसके साथ ही साथ एक और हिस्सा है जहां ध्यान देने की जरूरत है। कांट्रैक्ट फार्मिंग के इस कानून की वजह से देश में भूमिहीन किसानों के एक बहुत बड़े वर्ग के जीवन पर गहरा संकट आने वाला है।

2011 की जनगणना के अनुसार, देश में कुल 26.3 करोड़ परिवार खेती-किसानी के कार्य में लगे हुए हैं। इसमें से महज 11.9 करोड़ किसानों के पास खुद की जमीन है। जबकि 14.43 करोड़ किसान भूमिहीन हैं। भूमिहीन किसानों की एक बड़ी संख्या ‘बंटाई’ पर खेती करती है।

निजी क्षेत्र की फर्म से मुकाबला कैसे?

भूमि के मालिक से कुल पैदावार की आधी फसल पर बंटाई बोई जाती है। ग्रामीण इलाकों का यह अपना एक प्रचलित खेती करने का तरीका है। इस नए कानून के जरिए पूंजीपतियों को कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के लिए खुली छूट दी जा रही है। अब सोचने का विषय यह है कि गांव का कोई भूमिहीन किसान इन बड़े निजी क्षेत्र की फर्म से मुकाबला कैसे करेगा?

वह कहते हैं कि एक बड़ी कंपनी बड़ी आसानी से किसी किसान से उसकी भूमि 5 साल की अवधि के लिए एकमुश्त एडवांस पर ले सकती है। लेकिन, गांव का एक भूमिहीन किसान यह करने में असमर्थ रहेगा। ऊपर से भारत के किसानों का एक बड़ा हिस्सा अशिक्षित है जो कि कानूनी अनुबंध करने में खुद को असहज पाएगा। ऐसी परिस्थिति में भूमिहीन किसानों का पूरा जीवन खत्म हो जाएगा।

भूमिहीन किसानों के भविष्य को प्रभावित करेगा कानून

इसके अलावा बड़ी कंपनियां मशीनों के जरिए खेती का कार्य करेंगी न कि मजदूरों के जरिए। इसलिए बहुत अधिक रोजगार भी उत्पन्न नहीं होने जा रहे हैं। यह कानून देश के 14 करोड़ भूमिहीन किसानों के भविष्य को प्रभावित करने जा रहा है।

आर्थिक चिंतक कहते हैं तीसरा कानून ‘आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक, 2020’ है। यह कानून आने वाले निकट भविष्य में खाद्य पदार्थों की महंगाई का दस्तावेज है। इस कानून के जरिए निजी क्षेत्र को असीमित भंडारण की छूट दी जा रही है। उपज जमा करने के लिए निजी निवेश को छूट होगी। सरकार को पता नहीं चलेगा कि किसके पास कितना स्टॉक है और कहां है? यह जमाखोरी और कालाबाजारी को कानूनी मान्यता देने जैसा है।

महंगाई बढ़ाने की खुली छूट

वह कहते हैं इस कानून में स्पष्ट लिखा है कि राज्य सरकारें असीमित भंडारण के प्रति तभी कार्यवाही कर सकती हैं जब वस्तुओं की मूल्यवृद्धि बाजार में दोगुनी होगी। एक तरह से देखें तो यह कानून महंगाई बढ़ाने की भी खुली छूट दे रहा है। विपरीत हो चुकी आर्थिक स्थिति के बीच यह कानून देश के मध्य आय वर्ग एवं निम्न आय वर्ग की बुनियाद को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाने वाला है।

अंत में विक्रांत निर्मला सिंह कहते हैं समय रहते सरकार को चाहिए कि इन तीनों कानूनों का उचित हल निकाल लिया जाए। वजह है कि यह आंदोलन भूमिहीन किसानों के रास्ते होते हुए मध्य एवं निम्न आय वर्ग को भी जोड़ेगा। आने वाले भविष्य में जब ये दोनों वर्ग भी खुद को इन कानूनों के जरिए ठगा महसूस करेंगे तो आंदोलन की रफ्तार और तेज हो जाएगी।

तीनों ही कृषि कानून किसानों और आम लोगों को बहुत फायदा पहुंचाने नहीं जा रहे हैं। न तो कोई सामान्य किसान इतना आर्थिक समृद्ध है कि वह बड़े गोदाम बनाकर अपनी फसलों का भंडारण करेगा और न ही भूमिहीन किसान इतने मजबूत हैं कि वे एक लंबी अवधि के लिए खेतों का कानूनी अनुबंध कर पाएंगे। तो फिर ये सब कौन कर सकेगा? उत्तर है पूंजी से भरे पड़े लोग।