‘सोचता हूं अल्लाह देगा तो देगा ही। बंदों से क्या मांगना…’ यह बात कोई फ़क़ीर ही कह सकता है। फ़क़ीर की साधना संगीत के साथ और गूढ़ बन जाती हैं। उम्र के हीरक पड़ाव में भी वो मांगने की कोशिश नहीं करता। जहां से निमंत्रण आता है वहां से कुछ पैसा मिलता है। वो नाकाफ़ी हैं, लेकिन निराशा नहीं आती। यह कहानी विश्व प्रसिद्ध अलगोजा वाद्ययंत्र के उस्ताद धोधे खान की है।
बाड़मेर के मांगता गांव के रहने वाले हैं धोधे खान
राजस्थान के बाड़मेर जिले के मांगता गांव निवासी धोधे खान की पहचान काफी पुरानी और कामयाबी की सूची बेहद लम्बी है। इन्होंने वर्ष 1982 में हुए एशियाई खेलों में लोक वाद्ययंत्र अलगोजा बजाकर सबको मंत्रमुग्ध कर दिया था। अलगोजे की धुन सुनकर राजीव गांधी ने इन्हें अपना बाराती बनाया था। आकाशवाणी पर गूंजने वाली अलगोजे की धुन भी इन्हीं की देन है। लेकिन वर्तमान में धोधे खान गरीबी और परेशानी में जी रहे हैं। पिछले दिनों आया तूफान इनके झोपड़े की छत को उड़ा ले गया। मदद नहीं मिलने से हताश धोधे खान कहते हैं, तूफान आया था छत ले गया…अब बारिश आ गई तो दीवारें भी ले जाएगी। लेकिन, अपनी कला के उस्ताद परिवार को कुछ नहीं दे पाने के मलाल में फंसे हुए हैं।
पाकिस्तान से लाए थे अलगोजा
जद्दोजहद में बैठे धोधे खान कहते हैं कि एक माह पहले छत के मुआवजे के लिए प्रार्थना पत्र दे चुके हैं। बार-बार कहना-मांगना अच्छी बात नहीं। हालात सबको पता हैं। कभी कहते हैं पटवारी आएगा- कभी बोलते हैं ग्रामसेवक आएगा? वे अभी अपनी पेंशन पर निर्भर हैं। उनका कहना है कि अब मैं भी सोचता हूं अल्लाह देगा, बंदों से क्या मांगना? उनके पास एक अलगोजा है जो पाकिस्तान से 70 साल पहले लाया था।
क्या है अलगोजा वाद्य कला ?
राजस्थान के बाड़मेर जिले में राणका फकीरों का अलगोजा वादन पर पूरा अधिकार है। इस जिले के बींजराड़, कुंदनपुर, बुरहान का तला, भूणिया, भलीसर, झड़पा और देरासर गांव ‘अलगोजा वादकों के गांव’ के नाम से जाने जाते हैं, लेकिन दूधिया गांव अलगोजा वादक गांवो में शीर्ष स्थान पर हैं। बाड़मेर-अहमदाबाद मार्ग पर मांगता गांव से पांच किलोमीटर दूर रेतीले टीलों के बीच स्थित दूधिया गांव ने अलगोजे के सुप्रसिद्ध वादक धोधे खां की सुरीली स्वर लहरियों से ही अपनी पहचान बनाई है।
कैसे बनाया जाता है अलगोजा
अलगोजा नडकट, केर, टाली, बांस की नली, सुपारी या कंगोर की लकड़ी का बना होता है। बाड़मेर की चौहटन तहसील के एकल गांव के भील लक्ष्मण और मोती केर की लकड़ी के अलगोजे बड़ी खूबसूरती से बना लेते हैं। अलगोजे में दो अलग-अलग बांसुरीनुमा लम्बी-छोटी नलियां होती है। नली में 4 से 7 तक छेद किए जाते हैं। दोनों नली के मुंह मत्स्याकार होते हैं। दोनों नली को मुंह में रखकर धोधे खां जब बड़ी नली से श्वांस खींचकर छोटी नली से स्वर निकालते हैं, तो सुनने और देखने वाले मोहित हुए बिना नही रह पाते। अलगोजे में संगीत के आरोह-अवरोह संगीत प्रेमियों को संगीत के रस से सराबोर कर देते हैं।
पाकिस्तान से सीखा, हिंदुस्तान में बिखेरी स्वरलहरियों ने दी पहचान
धोधे खां बताते हैं कि अलगोजा बजाने के लिए साधना और सांस की ताकत की आवश्यकता होती है। बिना साधना किए अलगोजे पर उंगलियां सुगमता से चल नहीं सकतीं। धोधे खां यों तो संगीतज्ञ परिवार से हैं, लेकिन 10 वर्ष की अल्पायु में ही पिता मीरा खां के देहावसान के बाद उन्हें पीर मिश्री जमाल, पाकिस्तान के कामआरा शरीफ गांव के भीटघणी स्कूल की शरण मे जाकर अलगोजा वादन विद्या में पारंगत होना पड़ा। छह वर्ष की कठिन साधना के बाद धोधे खां ने कुंदन की तरह निखर कर पाकिस्तान के युवा अलगोजा वादकों में अपनी छाप छोड़ दी।
मारियल से हुई शादी
पाकिस्तान के हैदराबाद क्षेत्र के खैरपुर गांव के रहने वाले धोधे खां के पिता मीरा खां की शादी दूधिया गांव के धुरा की लड़की मारियल से हुई थी। धोधे खां कामआरा शरीफ से शिक्षा ग्रहण करने के बाद दूधिया लौट आए और ननिहाल के साये और सहयोग से आगे बढऩे लगे। रामा, पीर, भिटाई, धोटिया, कानूड़ा, मलहूद, यानबी, प्रभातिया आसा भजन की धुनें जब धोधे खां अलगोजे पर निकालते हैं तो भजन प्रेमी भक्तिरस से सराबोर हो जाते हैं।
इन धुनों पर देते हैं प्रस्तुति
शादी-ब्याह में लाडेला, सेहरो, डोरो, मेंहदी, अरणी, तोरण के गीतों पर अलगोजे के संगीत और महेन्द्र-मूमल, मीर-महेन्द्र, ढोला-मारू, सस्सी-पुन्नु, ऊजली-जेठा और बीजा सोरठ की प्रेम गाथाओं को अलगोजे पर बजाने मे तो धोधे खां को महारत हासिल है। धोधे खां सिंधी धुनो में पारंगत है और राणा-महेन्द्र, काफी आदि को सिंधी धुनों मे खूबी से प्रस्तुत करते हैं। राग मल्हार, श्याम कल्याण, राणा, दरबारी, कलवाड़ा में धोधे खां सिद्धहस्त हैं। अमरकोट के कलाकार हमीर मुथा, हवेली के लतीफ, नारा ढोरा के हनीफ, सादी लिपली के मुवीन एवं तमाची, धोधे खां के प्रिय कलाकारों में हैं।
बाड़मेर में लोकसंगीत के संरक्षण में कार्यरत राकेश शर्मा के अनुसार इस कला को संरक्षण देने की ज़रूरत हैं। विडम्बना यह हैं कि देश के विश्व प्रसिद्ध अलगोजा वाद्ययंत्र के उस्ताद धोधे खान मुफलीसी में जी रहे हैं। कोई सरकार इनकी सुध नहीं ले रही।