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तीन महीने में फेसबुक-वाट्सऐप पर बनेगा नया कानून, क्या खतरे में है आपकी प्राइवेसी




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सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने ऐलान कर दिया है कि वह अगले तीन महीने में प्राइवेसी को लेकर नए नियम लाने जा रही है। इसके तहत वह फेसबुक, वाट्सऐप जैसी सोशल मीडिया कंपनियों से किसी संदिग्ध परिस्थिति में यूजर्स के डाटा प्राप्त कर सकेगी। अभी तक प्राइवेसी का हवाला देते हुए सोशल मीडिया कंपनियां सरकार को डाटा देने से इनकार करती रही हैं। इस पर सरकार का तर्क है कि वह प्राइवेसी के नाम पर आतंकी गतिविधियों पर नकेल कसने में कोई ढील नहीं कर सकती है। कंपनियों को डाटा शेयर करना होगा। तीन महीने की डेडलाइन आने के बाद से यह सवाल भी उठने लगे हैं कि कहीं नए कानून से लोगों की प्राइवेसी के अधिकार का उल्लंघन नहीं हो जाए।

इस मामले पर साइबर एक्सपर्ट पवन दुग्गल ने ‘आउटलुक’ को बताया कि सरकार को नए नियम में इस बात का ध्यान रखना होगा कि लोगों की प्राइवेसी का उल्लंघन नहीं होने पाए क्योंकि सरकार को कोई भी कानून बनाते वक्त सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2017 में दिए गए फैसले का ध्यान रखना होगा। जिसके तहत अगस्त 2017 में जस्टिस के.एस. पुट्टास्वामी ने प्राइवेसी को मौलिक अधिकार माना था। यानी लोगों की निजता का उल्लंघन मौलिक अधिकार के हनन के रूप में देखा जाएगा। हालांकि हमें यह भी समझना होगा कि भारत में काम करने वाली फेसबुक, वाट्सऐप जैसी कंपनियों को यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वह प्राइवेसी के नाम पर भारतीय कानून की अनदेखी करें। दुनिया में आतंकवाद और दूसरे मामलों में सोशल मीडिया का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है। ऐसे में कई देशों में इस तरह की मांग उठी है कि कंपनियां डाटा शेयर करें। लेकिन इस बीच सरकार को यह भी देखना होगा कि वह कानून बनाते समय चीन जैसा मॉडल नहीं अपनाए। सरकार को यह ध्यान रखना होगा कि किसी भी तरह प्राइवेसी जैसे मौलिक अधिकार की अनदेखी नहीं हो।

सरकार का क्या है तर्क

सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में दायर एक हलफनामे में, केंद्र के इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (एमईआईटीवाई) ने कहा कि एक तरफ जहां टेक्नोलॉजी ने आर्थिक और सामाजिक विकास को गति दी है, वहीं दूसरी ओर इसकी वजह से घृणा फैलाने वाले भाषणों, फेक न्यूज, राष्ट्र-विरोधी गतिविधियां, मानहानि संबंधी पोस्ट और इंटरनेट/सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का उपयोग करके अन्य गैरकानूनी गतिविधियों को अंजाम देने के मामलों में वृद्धि हुई है। हलफनामे में यह भी उल्लेख किया गया है कि इंटरनेट ‘लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यवधान पैदा करने के एक शक्तिशाली उपकरण’ के रूप में उभरा है। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता का कहना था कि, ‘कोई भी मध्यस्थ यह नहीं कह सकता है कि निजता की आड़ में आतंकवादी गतिविधियों को संरक्षण दिया जा रहा है। सोशल मीडिया पर अभद्र भाषा, फेक न्यूज, अपमानजनक पोस्ट और राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों को विनियमित करने के लिए नए नियम 15 जनवरी 2020 तक बना लेगी।’

सबूतों के आधार पर हो कार्रवाई

सरकार जिस तरह नया कानून लाने की बात कर रही है, उससे इस बात की आशंका भी उठ रही है कि कहीं लोगों की प्राइवेसी ही खतरे में नहीं पड़ जाय। लोगों को यह लगने लगे कि उनकी हर गतिविधि पर नजर रखी जा रही है। इस पर कंज्यूमर एक्टिविस्ट बेजॉन मिश्रा का कहना है कि इस बात का खतरा तो है। ऐसे में सरकार को बहुत सोच-समझ कर कानून बनाना होगा। कम से कम लोगों पर नजर रखने के लिए सरकार के पास कोई ठोस प्रमाण होना जरूरी है। जिससे वह साबित कर सके कि नजर रखने की कोई ठोस वजह है।

सरकार का क्या करती है इसके लिए तो तीन महीने का इंतजार करना होगा। लेकिन हर हालत में उसे यह नहीं भूलना होगा कि प्राइवेसी संविधान के तहत हर नागरिक को मिला मौलिक अधिकार है। जिस पर से आम लोगों का भरोसा नहीं उठना चाहिए।