चुनाव प्रचार और मतदान के बाद महाराष्ट्र को लेकर आए एग्ज़िट पोल के अनुमानों में बीजेपी को अकेले दम पर बहुमत हासिल करते हुए दिखाया गया.
यहां तक कि मतगणना के कुछ दिन पहले हरियाणा में कांटे की टक्कर की बात कुछ लोगों ने स्वीकार की लेकिन महाराष्ट्र के नतीजों का अनुमान वैसा ही बना रहा.
महाराष्ट्र की राजनीति पर क़रीब से नज़र रखने वाले कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि महाराष्ट्र के नतीजों ने भले ही लोगों को चौंकाया हो लेकिन राज्य में स्थितियां इससे अलग नहीं थीं.
जो अंतिम नतीजे आए हैं उसमें कोई ताज्जुब नहीं है. ये अलग बात है कि हमारा अनुमान था कि बीजेपी को कम से कम 110 सीटें हासिल होंगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ और इससे बीजेपी के अंदर ही कई सवाल खड़े हो गए हैं. क्योंकि बीजेपी का अनुमान था कि उसे 120 सीटें तो मिल ही जाएंगी.
हालांकि कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन भले ही उम्मीद के मुताबिक़ प्रदर्शन नहीं कर पाया हो लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों को देखें तो ये दोनों पार्टियां लगभग ख़त्म हो चुकी थीं.
उस हिसाब से तो इस चुनाव नतीजे से कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को ये तो लग सकता है कि वे अभी भी उबर सकती हैं. लोकसभा के मुक़ाबले में इन दोनों पार्टियों का प्रदर्शन बेहतर हुआ है.
अब वो ऐसी स्थिति में आ गए हैं कि वे सरकार भले नहीं बना पाएं लेकिन एक मज़बूत विपक्ष की भूमिका निभा सकने की स्थिति में हैं.
कांग्रेस-एनसीपी की तरह ही बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन 25 साल पुराना है जो कि बीच में कुछ समय के लिए ये गठबंधन टूट गया था और 2014 का विधानसभा चुनाव शिवसेना ने अकेले लड़ा था.
दिलचस्प बात ये है कि 2014 में अकेले दम पर लड़ने के बावजद शिवसेना को लगभग उतनी ही सीटें मिली थीं, जितनी इस बार गठबंधन में रहते हुए मिलीं.
इसका मतलब साफ़ है कि महाराष्ट्र में दोनों ने पांच साल सरकार चलाई, काफ़ी विज्ञापन दिए लेकिन उससे कोई फ़ायदा नहीं मिला.
इन नतीजों से ये साफ़ हो जाता है कि असल में मतदाताओं की दिलचस्पी इन दोनों पार्टियों में बहुत ज़्यादा रही नहीं, सिर्फ़ इसलिए इन्हें फ़ायदा मिल गया क्योंकि कोई मज़बूत विकल्प नहीं है उनके सामने.
अगर इस चुनाव में कांग्रेस वाक़ई दम लगाकर लड़ती तो नतीजे उसके पक्ष में और बेहतर आ सकते थे. देखने में यह आया कि कांग्रेस के स्थानीय बड़े नेता सिर्फ़ अपनी सीटों पर ही सक्रिय रहे लेकिन कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व ने इस चुनाव में दिलचस्पी ली ही नहीं.
महाराष्ट्र में देखा गया कि चुनाव से पहले कांग्रेस के विपक्ष के नेता बीजेपी में चले गए और प्रदेश अध्यक्ष अशोक चव्हाण सिर्फ़ अपने विधानसभा क्षेत्र में लगे रहे. इसकी वजह से राज्य और राष्ट्रीय नेतृत्व नज़र नहीं आया. हालांकि, कार्यकर्ताओं की तारीफ़ करनी होगी कि उन्होंने मेहनत की.प्रकाश आंबेडकर की पार्टी भी चुनाव मैदान में थी
छोटे दलों का प्रदर्शन कैसा रहा?
महाराष्ट्र चुनाव में छोटे दलों को अगर देखें तो वह विफल रहे. 2014 की विधानसभा चुनाव जैसा ही उन्होंने प्रदर्शन किया है.
छोटे दल हमेशा विपक्ष की बड़ी भूमिका निभाते हैं लेकिन देखने में आया कि प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन अघाड़ी पार्टी का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा. जबकि चुनाव से पहले उनके दल की काफ़ी चर्चा थी.
इसी तरह से महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना भी काफ़ी सुर्ख़ियां बटोरती रही है लेकिन उसे केवल एक सीट मिली है. इसके अलावा बहुत से छोटे दलों ने चुनाव लड़ा है लेकिन उन्होंने ग़लती यह कि उन्होंने बीजेपी के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा है.
अब देखना यह होगा कि असलियत में बीजेपी के कितने और छोटे दलों के कितने उम्मीदवार चुनाव जीते हैं.
कौन-से मुद्दे हावी रहे?
विधानसभा चुनावों में हमेशा स्थानीय मुद्दे हावी रहते हैं. बीजेपी की रणनीति यह थी कि केवल मुख्यमंत्री राज्य के विकास के मुद्दे की बात करेंगे जबकि राष्ट्रीय नेता राष्ट्रीय मुद्दों की बात करेंगे.
यह रणनीति बीजेपी ने सिर्फ़ महाराष्ट्र में नहीं अपनाई बल्कि उसकी रणनीति है कि राष्ट्रीय नेता राष्ट्रीय मुद्दों पर ही बात करके चुनाव जीतें. इस कारण बीजेपी ने कई विधानसभा चुनावों में कोई बंपर जीत दर्ज नहीं की है क्योंकि जनता को लगता है कि स्थानीय मुद्दों की जगह उन पर राष्ट्रीय मुद्दे थोपे जा रहे हैं.
महाराष्ट्र में प्रधानमंत्री मोदी का ही जादू चला. लोकसभा की तरह ही इस विधानसभा चुनाव में यह संदेश गया कि प्रधानमंत्री मोदी को मज़बूत करना है और उन्हें वोट दिया जाना चाहिए.
एनसीपी-कांग्रेस का भविष्य
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के परिणामों के बाद यह साफ़ है कि एनसीपी-कांग्रेस विपक्ष का नेतृत्व करेंगे. अब इनके लिए ज़रूरी है कि यह ठोस मुद्दे लेकर राजनीति करें.
पिछली सरकार में इस विपक्षी गठबंधन ने दो साल कुछ भी नहीं किया. यह गठबंधन उस वक़्त सदमे में था कि अब वह विपक्ष में है. अब उम्मीद है कि वह इस सदमे से बाहर होगा.
विपक्ष में बैठने की एक कला होती है जो एनसीपी प्रमुख शरद पवार को पता है और इस कला को कांग्रेस को भी सीखना होगा.
इन विधानसभा चुनाव के नतीजों से यह पता चलता है कि अगर आप पूरी राजनीति सिर्फ़ एक नेता पर केंद्रित कर दें तो वो खोखली हो जाती है. क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी की वजह से हरियाणा में जीत नहीं मिली और महाराष्ट्र की जीत बंपर जीत नहीं है.
दूसरा सबक़ यह है कि नेता अगर प्रसिद्ध न भी हो तो गवर्नेंस बहुत मायने रखता है. हरियाणा और महाराष्ट्र का उदाहरण लें तो हरियाणा का गवर्नेंस महाराष्ट्र से कमतर था. इस कारण हरियाणा में बीजेपी को महाराष्ट्र के मुक़ाबले ज़्यादा बड़ी सज़ा मिली.
महाराष्ट्र में बीजेपी का अधिक बुरा गवर्नेंस नहीं था इस कारण वह वापस सत्ता में आ रही है.
शिवसेना की सरकार में क्या भूमिका होगी?
शिवसेना का कहना है कि 50-50 फॉर्मूला चलेगा लेकिन मेरा मानना है कि यह सिर्फ़ कहने की बात है. अब मंत्रिमंडल कौन-सा किसके पास जाएगा इस पर बात होगी.
शिवसेना चाहेगी कि महत्वपूर्ण मंत्रालय उसे मिलें. शहरी विकास, उद्योग मंत्रालय शिवसेना मांग सकती है. इस पर शिवसेना राज़ी हो सकती है.
बीजेपी-शिवसेना गठबंधन की अगर बात करें तो वह आगे भी चलेगा लेकिन साथ ही हर रोज़ के झगड़े भी चलते रहेंगे. इन झगड़ों को अलग रखकर अगर आप सरकार चला ले जाते हैं तो यह मुख्यमंत्री की सफलता होगी.
बीजेपी-शिवसेना गठबंधन में शिवसेना के पास बहुत विकल्प नहीं है. क्योंकि वह किसी और दल के साथ मिलकर सरकार नहीं बना सकती है.
महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना की जीत ज़रूर हुई है लेकिन वह बंपर जीत नहीं है. वहीं, एनसीपी-कांग्रेस हारे ज़रूर हैं लेकिन वह यह कह सकते हैं कि हारने के बाद भी ज़िंदा हैं.
इन चुनाव नतीजों से पता चलता है कि एनसीपी-कांग्रेस के लिए भी राजनीति में जगह है. बीजेपी-शिवसेना का न ही वोट प्रतिशत बढ़ा और न ही सीट बढ़ी लेकिन वह सत्ता में लौट आए हैं.
इन चुनावों ने सभी पार्टियों को फिर एक बार यह दिखा दिया है कि जनता आपको चेतावनी देती है. अगर आप उसे नहीं पढ़ पाते हैं तो आपका भविष्य दिक़्क़तों भरा हो जाता है.