मुलताई (बैतूल)। महाराष्ट्र के नागपुर शहर की एक युवती ने समाजसेवा को सही मायने में चरितार्थ किया है। इस युवती ने अपने दम पर मूक-बधिर बच्चों के लिए एक स्कूल खोला और बिना किसी शासकीय अनुदान के इस स्कूल को चार साल तक चलाया। इन चार सालों में कई बार भूखे पेट भी सोना पड़ा लेकिन इस युवती ने हार नहीं मानी और आज इस युवती का प्रयास इस तरह रंग लाया किसमाज में हर कोई इस युवती को सम्मान की दृष्टि से देखता है हालांकि अभी स्कूल अर्थिक संकट से जूझ रहा है।
इस युवती ने जो संघर्ष किया और इस संघर्ष के साथ जो लड़ाई लड़ी, वह वाकई में काबिले तारिफ है। 19 बच्चों के साथ शुरू किया स्कूल अब 60 मूक-बधिर और मानसिक रुप से कमजोर बच्चों तक पहुंच गया है लेकिन क्षेत्र के एक-एक मानसिक रुप से कमजोर और मूक-बधिर बच्चे को अपने पैरों पर खड़ा करना और उन्हें सशक्त बनाना ही, इस युवती का सपना बन गया है। पिछले 7 सालों से यह युवती 60 बच्चों को मां की तरह प्यार दे रही हैं।
नागपुर निवासी 29 वर्षीय अपर्णा पिता रूपचंद उईके 2011 तक पांढुर्णा के एक मूक-बधिर स्कूल में शिक्षिका का काम करती थीं लेकिन इस स्कूल में वह बच्चों की देखभाल उस तरह से नहीं कर पा रही थी, जिस तरह से उनकी देखभाल होनी चाहिए। बस फिर क्या था अपर्णा ने खुद का स्कूल शुरू करने की सोची और यह सोच अपने पिता रूपचंद उईके को बताई। बेटी अपर्णा की यह बात सुन उनके पिता ने उसे पागल करार दे दिया और कोई सरकारी नौकरी ढूंढकर नौकरी करने एवं विवाह करने की बात कही, लेकिन अपर्णा कहा रूकने वाली थी।
अपर्णा ने छिंदवाड़ा, बैतूल, हरदा, वरूड़ क्षेत्र में सर्वे किया और पाया कि मुलताई क्षेत्र में बहुत से बच्चे मानसिक रुप से कमजोर और मूक-बधिर है। वहीं ऐसे बच्चों को शिक्षा एवं सशक्त बनाने का कोई माध्यम भी नहीं है। उन्होंने सुनील गोहणे के साथ मिलकर 2012 में मुलताई के गायत्री नगर में दो कमरों का मकान किराए से लेकर अंकुर मूक-बधिर एवं मानसिक रुप से कमजोर बच्चों के लिए स्कूल की शुरूआत की। स्कूल शुरू होते ही स्कूल में 19 बच्चे आ गए। अपर्णा द्वारा बच्चों को निशुल्क शिक्षा के साथ निशुल्क भोजन एवं रहने की सुविधा भी दी जाती है। कोई शासकीय मदद नहीं मिलने से समाजसेवा का यह काम कुछ ही दिनों में भारी होने लगा। अपर्णा ने अपने पिता से 12 लाख रुपए की मदद ली और पूरा पैसा इस स्कूल में लगा दिया। लंबे संघर्ष के बाद 2016 में इस स्कूल को शासकीय अनुदान मिलने लगा, लेकिन अनुदान भी हर महीने नहीं मिलता, इस बार भी यह अनुदान दस महीनों बाद मिला है। ऐसे में अपर्णा 60 बच्चों के लिए भोजन एवं अन्य व्यवस्थाएं स्वयं करती हैं। अभी भी अनुदान नहीं मिल रहा है, जिसके चलते लोगों से मदद ली जा रही है, लेकिन हार नहीं मानी है।
लकड़ियां बीनकर लाईं तब बनाया भोजन
अपर्णा ने बताया कि संघर्ष के दिनों में जब उनके पास ईधन लाने के लिए रुपए नहीं रहते थे और बच्चे भूख से व्याकुल रहते थे तो वह शाम के समय लकड़िया बिनने जाती थी, लगभग दो घंटे लकड़िया बिनने के बाद एक टाइम का भोजल बनाने के ईधन का इंतजाम हो जाता था और फिर भोजन बनाकर बच्चों को परोसती थी। अपर्णा द्वारा बच्चों को शिक्षा के साथ उन्हें भोजन देने एवं उनके रहने का पूरा इंतजाम एकदम निशुल्क किया जाता है, इसके लिए वह किसी भी बच्चे से कोई फीस नहीं लेती।
पिता बोले गर्व है ऐसी बेटी पर
रिटायटमेंट के बाद अपर्णा के पिता रूपचंद भी मुलताई आए हुए है, वह नागपुर में किराए के मकान में रहते है। उन्होंने बताया कि उनकी रिटायरमेंट की राशि उन्होंने अपर्णा को दी थी, जिसे उसने इस स्कूल में खर्च कर दिया, पहले उन्हें अपर्णा का बहुत गुस्सा आता था, लेकिन अब उन्हें बेटी पर गर्व होता है। उन्होंने कहा कि मेरी बेटी में कोई गलत काम में रुपया खर्च नहीं किया, उसने मानसिक रुप से कमजोर और मूक-बधिर बच्चों पर समय लगाया है, वह बच्चे जिन्हें उनके घर वाले भी देखभाल नहीं करना चाहते, ऐसे बच्चों को उनकी बेटी संभाल रही है, इसलिए उनका सिर गर्व से ऊंचा है।