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कौन हैं यूसुफ तारिगामी, जिससे मिलने के लिए बेकरार हो गए सीताराम येचुरी…




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कौन हैं मोहम्मद यूसुफ तारिगामी जिनसे मिलने के लिए माकपा नेता सीताराम येचुरी को सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगानी पड़ी? 72 साल के यूसुफ तारिगामी जम्मू कश्मीर के एकलौते कम्युनिस्ट विधायक रहे हैं। आतंकवाद से जूझते कश्मीर में उन्होंने कुलगाम विधानसभा सीट से लगातार चार बार चुनाव जीत कर अपने दम पर सीपीएम (माकपा) का परचम फहराया है। अब वे पूर्व विधायक हैं। धारा 370 हटने के बाद माकपा के नेता कश्मीर जाना चाहते थे। येचुरी कश्मीर जा कर बीमार तारिगामी से मिलना चाहते थे। माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी और भाकपा के महासचिव डी राजा 12 अगस्त को श्रीनगर पहुंच भी गये। लेकिन राज्य प्रशासन सुरक्षा कारणों से उन्हें आगे जाने की इजाजत नहीं दी। एयरपोर्ट से ही दोनों को दिल्ली लौटना पड़ा। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने येचुरी को सशर्त कुलगाम जाने की इजाजत दी है।मोहम्मद यूसुफ तारिगामी

वैसे तो कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और कांग्रेस का बोलबाला रहा है। जम्मू कश्मीर में कम्युनिस्ट पार्टी का कोई आधार नहीं है फिर भी यूसुफ तारिगामी ने अकेले दम पर ही यहां साम्यवाद का झंडा बुलंद किये रखा। वे माकपा के टिकट पर दक्षिणी कश्मीर के कुलगाम विधानसभा क्षेत्र से चार बार लगातार विधायक चुने गये। तारिगामी जब अनंतनाग कॉलेज में पढ़ते थे तभी से वे साम्यवादी विचारों से प्रभावित थे। कुलगाम पहले नेशनल कांफ्रेंस का गढ़ था। एक बार कांग्रेस भी यहां जीती थी। लेकिन 1996 में तारिगामी ने यहां का राजनीतिक समीकरण बदल दिया। वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे और विजयी रहे। इसके बाद उन्होंने इस सीट से 2002, 2008 और 2014 का विधानसभा चुनाव भी जीता। पिछले दो चुनावों में वे खुशकिस्मत रहे कि जैसे-तैसे जीत मिल गयी। 2008 के चुनाव में वे केवल 236 वोटों से जीत पाये थे। 2014 के चुनाव में एक बार किस्मत ने साथ दिया और वे सिर्फ 334 वोटों से जीते। दोनों की बार उन्होंने पीडीपी के उम्मीदवार को हराया। तारिगामी सीपीएम के राज्य सचिव हैं। साम्यवादी होते हुए भी उनकी सोच उमर अबदुल्ला और महबूबा मुफ्ती से अलग नहीं है। उन्होंने 2016 में बयान दिया था कि कश्मीर विवाद सुलझाने के लिए भारत को पाकिस्तान से वार्ता करनी चाहिए।

कश्मीर में लाल परचम का मतलब

2014 के विधानसभा चुनाव के समय कुलगाम के एक सामाजिक कार्यकर्ता ने सीपीएम की स्थिति पर एक अनोखी टिपण्णी की थी। उसने कहा था, अधिकतर अखबार कुलगाम के बारे में लिखते हैं कि यहां लाल (कम्युनिस्ट) हरा (इस्लाम) के अंदर है। दरअसल यह सच है। यह विरोधाभाष यहां इस लिए है क्यों कि पहले धार्मिक रुझान वाले लोग कम्युनिस्ट को जीतने में दिलचस्पी नहीं रखते थे। वे इससे दूर रहते थे। लेकिन अब यहां के लोगों ने अपनी गलतियां सुझार ली हैं। कुलगाम में सीपीएम के प्रभाव वाली कोई बात नहीं है। ये तो यूसुफ तारिगामी का व्यक्तिगत कमाल है कि है कि वे कांटे की लड़ाई में बाजी मार ले जा रहे हैं।

कुलगाम आतंकियों का सबसे बड़ा गढ़

1990 में जब जम्मू कश्मीर में आतंकी गतिविधियां शुरू हुई थी उस समय उत्तर कश्मीर ही दहशतगर्दों का गढ़ था। सीमापार से आतंकी कश्मीर में घुसपैठ कर बारामूला, बांदीपुरा और कुपवाड़ा के जंगलों में छिप जाते थे। उस समय उत्तर कश्मीर की तुलना में दक्षिण कश्मीर शांत था। उत्तर कश्मीर में जब सुरक्षा बलों से आतंकियों की मुठभेड़ होती थी तब अधिकतर सीमा पार के आतंकी मारे जाते थे। इस लिए नेताओं को राजनीति करने का मौका नहीं मिलता था। लेकिन हिजबुल कमांडर बुरहान वानी ने दक्षिण कश्मीर में स्थानीय युवकों को आतंकवाद से जोड़ कर स्थिति बदल दी। वानी दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले के त्राल का रहने वाला था। उसने कुलगाम को आतंकवाद का गढ़ बना दिया। तारिगामी जिस कुलगाम के विधायक रहे हैं अब वह आतंकवाद का सुलगता दरिया बन गया है। 2016 में सुरक्षा बलों ने बुरहान वानी को मार गिराया था। उसके बाद से कुलगाम आतंकवाद की आग में जल रहा है।

आतंकियों की मौत पर सियासत

चूंकि अब आंतकी संगठनों में स्थानीय युवकों की भरमार हो गयी है इस लिए मुठभेड़ में अधिकतर उनकी ही मौत होती है। स्थानीय युवकों के मारे जाने पर नेताओं को सियासत चमकाने का मौका मिल जाता है। अब सीपीएम का कहना है कि केन्द्र सरकार ने कश्मीर में आतंकवाद की लड़ाई को मुसलमानों के खिलाफ तब्दील कर दिया है। जब कि अभी कुलगाम में आतंकियों का इतना खौफ है कि सेना को आये दिन ऑपरेशन लॉन्च करना पड़ता है। पिछले साल अक्टूबर में सुरक्षा बलों ने कुलगाम में पांच आतंकियों का मार गिराया था। इस साल जनवरी में सेना, सीआरपीएफ और पुलिस को ज्वाइंट ऑपरेशन करना पड़ा था जिसमें दो आंतकी ढेर हुए थे। दक्षिण कश्मीर में आतंकी सोशल मीडिया के जरिये न केवल अपनी गतिविधियां चलाते हैं बल्कि पुलिस, सेना के खबरी और मुख्यधारा के नेताओं को धमकी भी देते हैं। गोला-बारूद की तरह इंटरनेट भी आतंकियों बहुत बड़ा हथियार बन गया है। इसके पहले भी सुरक्षा कारणों से कश्मीर में इंटरनेट सेवाएं बंद की गयी हैं।