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छत्तीसगढ़ में भी है एक छोटा तिब्बत, अनूठी है मैनपाट की संस्कृति और परंपरा




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ऊंचाई पर स्थित सपाट मैदान और चारों तरफ खुली वादियां। ताजी-जाती हवा के झोंकों के साथ बांहे फैलाकर अहसास करें तो यहां जमीन से आसमान का मिलन होता महसूस होता है। इसी वादी में रंग-बिरंगे तोरण, बोद्ध मंदिर, बौद्ध भिच्छुओं के शांत सौम्य चेहरों के साथ कालीन बुनते तिब्बतियों को देखकर ऐसा महसूस होता है कि हम नाथूला दर्रे को पार कर तिब्बत के किसी गांव में पहुंच गए हैं। उत्तर छत्तीसगढ़ में मैनपाट की पहाड़ी पर बसा है छोटा तिब्बत। यहां आने के बाद सैलानियों को बुद्ध की शरण में आने का भी अहसास होता है। छोटे-छोटे साफ-सुथरे मकान और चारों ओर हरियाली। रंग-बिरंगे छोटे बड़े झंडे से सुसज्जिात परिसर, हाथ में माला और चेहरे पर मुस्कान।

यह पहचान है मैनपाट के तिब्बती और उनके कैंपों की। साल 1962 में तिब्बत पर चीनी कब्जे और वहां के धर्मगुरू दलाई लामा सहित लाखों तिब्बतियों के निर्वासन के बाद भारत सरकार ने उन्हें अपने यहां शरण दी थी। इसी दौरान तिब्बत के वातावण से मिलते-जुलते मैनपाट में एक तिब्बती कैंप बसाया गया था, जहां तीन पीढ़ियों से तिब्बती शरणार्थी रह रहे हैं।

यहां बसने के छह दशक बाद भी शरणार्थी तिब्बती अपनी सभ्यता व संस्कृति से ना सिर्फ जुड़े हुए हैं बल्कि मैनपाट को भी नई पहचान देने में महत्वपूर्ण योगदान देने में लगे हुए हैं। यही कारण है कि छत्तीसगढ़ के मैनपाट को ‘छोटा तिब्बत’ के नाम से भी जाना जाता है। यहां तिब्बतियों की बड़ी आबादी, उनकी सभ्यता संस्कृति, रहन-सहन और परंपरा विकसित हो चुकी है। इसके साथ ही यहां के स्थानीय बासिंदों पर भी दोनों परंपराओं का खासा असर देखने को मिलता है। बाहर से आने वाले सैलानी इसी अनोखी परंपरा से प्रभावित होते हैं। मैनपाट आने के बाद तिब्बती शरणार्थियों की जीवन शैली हर किसी को आकर्षित करती है।

यहां तिब्बतियों के सात कैंप हैं। इन सातों कैंपों में साठ के दशक में तिब्बतियों द्वारा छोटे-छोटे मकान बनाए गए थे। वे मकान आज भी यथावत व्यवस्थित तरीके से खड़े हैं। इन्ही मकानों में तिब्बती परिवार आज भी निवासरत है। तिब्बतियों का मकान, घरों के सामने लहराते झंडे और मठ-मंदिर अनायास ही तिब्बत की याद दिला देते हैं। तिब्बतियों की शिक्षा के लिए उसी दौर में सेंट्रल स्कूल और सिविल अस्पताल की स्थापना भी यहां की गई थी। शिक्षा, स्वास्थ्य को लेकर तिब्बती समाज के लोगों को किसी प्रकार की परेशानी ना हो इसे देखते हुए आरंभ की गई सुविधाएं आज भी बरकरार हैं। तिब्बत से आने के बाद भी समाज के लोग अपनी मूल संस्कृति और सभ्यता से दूर नहीं हुए हैं।

सभी कैंपों में बौद्ध मंदिर हैं, जहां सुबह से लेकर देर शाम तक समाज के बुजुर्ग पूजा-अर्चना में लगे रहते हैं। हर रोज सुबह- शाम मंदिर का वातावरण घंटे घड़ियाल से गूंजता रहता है। समय-समय पर तिब्बती समाज के लोग अपने पारंपरिक उत्सव को एक साथ मिलकर मनाते हैं। मैनपाट के कमलेश्वरपुर, रोपाखार क्षेत्र में स्थानीय लोगों के साथ मिलकर अपने पर्व मनाने वाले तिब्बतियों की पारंपरिक वेशभूषा और वाद्य यंत्र विशेष अवसरों पर ही नजर आते हैं।

युवा पीढ़ी शिक्षा और रोजगार की तलाश में मैनपाट से बाहर निकल चुकी है, लेकिन विशेष अवसरों पर वे अपनी जन्मभूमि पर जरूर लौटते हैं। मैनपाट में अब तिब्बती युवाओं की संख्या पहले जैसी नहीं रही है। शुरुआती दौर में यहां आने वाले तिब्बती ही शेष रह गए हैं, लेकिन उनके द्वारा मैनपाट को नई पहचान दिलाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी गई है। बुजुर्ग तिब्बती अभी भी मैनपाट को ही अपनी कर्मभूमि मानकर यहीं जमे हुए हैं।

व्यवसाय से भी जोड़ा

मैनपाट के मूल निवासियों को आय उपार्जक गतिविधियों से जोड़ने में भी तिब्बती शरणार्थियों ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। तिब्बती शरणार्थियों के संपर्क में आकर ही यहां के मूल निवासियों ने व्यापार की दिशा में कदम बढ़ाया था। तिब्बती शरणार्थियों द्वारा सबसे पहले गर्म कपड़ों का कारोबार शुरू किया गया। यह परंपरागत व्यवसाय आज भी जिंदा है। इस व्यवसाय से मैनपाट के मूल निवासी भी जुड़े। मैनपाट के मूल निवासियों को सरगुजा से बाहर महानगरों की जीवन शैली से अवगत करा शिक्षा से जीवन सुधार की दिशा में भी प्रेरित करने का काम तिब्बती शरणार्थियों ने किया है। इनकी देखा देखी मैनपाट के युवा भी आज बड़े शहरों में पढ़ाई कर अलग-अलग क्षेत्रों में नाम कमा रहे हैं।

टाउ और पहाड़ी आलू की खेती सिखाई

मैनपाट में विदेशी फसल टाऊ के साथ पहाड़ी आलू की खेती को आजीविका का माध्यम बनाने की सीख तिब्बती शरणार्थियों ने ही दी है। साठ के दशक में तिब्बती शरणार्थी जब यहां पहुंचे तो उन्होंने विदेशी फसल टाऊ की खेती करनी शुरू की। महानगरों में अत्यधिक मांग के कारण हाथों हाथ टाऊ बिकने लगा और तिब्बतियों को मोटी कमाई होने लगी। बाद में उन्होंने पहाड़ी आलू की भी बड़े पैमाने पर खेती शुरू की थी। इससे भी बेहतर आय शुरू हो गया। तिब्बतियों की वजह से मैनपाट के मूलनिवासी प्रेरित हुए और आज वे भी पहाड़ी आलू और टाऊ की खेती कर हर वर्ष अच्छी कमाई कर हैं।

दलाई लामा भी आ चुके हैं मैनपाट

तिब्बतियों की आस्था अपने धर्म गुरु के प्रति अटूट है। मैनपाट में दलाई लामा का भी आगमन हो चुका है। मैनपाट में तिब्बती शरणार्थियों के लिए उपलब्ध कराई गई सुविधाओं को लेकर हमेशा से ही धर्मगुरु दलाई लामा ने स्थानीय प्रशासन की भी सराहना की है। मैनपाट के तिब्बती शरणार्थी स्थानीय मूल निवासियों से पूरी तरह से घुल-मिल गए हैं। हर एक परिवार के सुख-दुख में शामिल होने की उनकी परंपरा ने ही उन्हें अपना बना लिया है।