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मोदी से लेकर ममता तक करते हैं जिक्र… क्या बंगाल में सत्ता की चाबी मतुआ और घीसिंग के पास?




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कोलकाता
पश्चिम बंगाल की सियासत में दो परिवार ऐसे हैं, जिनका वहां की राजनीति पर खासा असर माना जाता है। अपने-अपने समुदायों के बीच उनकी अहमियत को देखते हुए राजनीतिक दलों में उनका समर्थन पाने की होड़ रहती है। इनमें से एक है घीसिंग परिवार, जो गोरखालैंड इलाके की राजनीति की दिशा तय करता है और दूसरा है ठाकुर नगर का ठाकुर परिवार। मतुआ समुदाय की राजनीति यहीं से तय होती है।

अस्सी के दशक में सुभाष घीसिंग के नेतृत्व में गोरखा लोगों के लिए पृथक राज्य की मांग को लेकर गोरखालैंड लिबरेशन फ्रंट बना था। फ्रंट की अगुआई में हुई हिंसक घटनाओं से 1986 से 1988 के बीच जिले का जनजीवन खासा प्रभावित हुआ था। केंद्र और राज्य सरकारों के साथ कई दौर की बातचीत के बाद एक अर्ध स्वायत्त निकाय- दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल की स्थापना के साथ इस मसले का हल हुआ।

बीजेपी ने मन को दी जिम्मेदारी
घीसिंग 1988 से 2008 तक दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल के अध्यक्ष रहे। इस बार गोरखालैंड का इलाका टीएमसी और बीजेपी के लिए तो महत्वपूर्ण है ही, घीसिंग परिवार की विरासत के लिए भी बेहद अहम हो गया है। इस चुनाव में बीजेपी ने अपना किला सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी सुभाष घीसिंग के बेटे मन घीसिंग को दे रखी है।

घीसिंग का यह है इतिहास
घीसिंग की विरासत को समझने के लिए चालीस साल पीछे जाना होगा, जब 1980 में सुभाष घीसिंग ने गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट बनाया था। पश्चिम बंगाल के इस इलाके के लिए सुभाष घीसिंग ने ही सबसे पहले गोरखालैंड शब्द का प्रयोग किया। सुभाष घीसिंग का जन्म भी दार्जिलिंग में हुआ था। उन्होंने सेना की नौकरी छोड़कर 60 के दशक से ही गोरखाओं के अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए अलग-अलग संगठन बनाने की पहल शुरू कर दी थी।

राजनीति में मन की ऐसे हुई एंट्री

2015 में जब सुभाष घीसिंग की मौत हुई, तो संगठन की कमान उनके छोटे बेटे मन घीसिंग को दी गई। दिल्ली से पढ़ाई करने वाले मन घीसिंग की हालांकि शुरू से राजनीति में रुचि नहीं थी, लेकिन चूंकि वह शुरू से दार्जिलिंग में अपने पिता के साथ रहते थे, इसलिए उनका परिचय संगठन के लगभग सारे सदस्यों से था। वह सुभाष घीसिंग की दूसरी पत्नी से इकलौती संतान हैं। सुभाष घीसिंग की पहली पत्नी से दो संतानें थीं- सागर और उमा। वे अपने पिता के साथ कभी नहीं रहे, दोनों विदेश में बस चुके हैं।

1996 से 2006 तक यह रहा इतिहास
2015 में जब मन घीसिंग को औपचारिक रूप से संगठन की जिम्मेदारी दी गई, तभी से उनके सामने चुनौती खड़ी होनी शुरू हो गई थी। वैसे इसकी बुनियाद 2007 में ही पड़ गई थी, जब सुभाष घीसिंग के सबसे पुराने सहयोगी बिमल गुरुंग ने अलग होकर अपनी पार्टी बनाई और विनय तमांग बागी पार्टी के प्रमुख बने। 1996 से लेकर 2006 तक इलाके की सभी विधानसभा सीटों पर सुभाष घीसिंग के ही उम्मीदवार जीतते थे। इससे इनके रसूख का पता चलता था। लेकिन दो सहयोगियों के अलग होने का साफ असर पड़ा।

2016 में मन ने दिया ममता का साथ
सुभाष घीसिंग पर उनके पुराने शागिर्द बीस पड़ने लगे। इससे घबरा कर 2016 में मन घीसिंग ने ममता बनर्जी का साथ दिया, तो गुरुंग-तमांग बीजेपी के साथ हो गए। 2019 में घीसिंग ने फिर पाला बदला, बीजेपी के उम्मीदवार को सपोर्ट किया और उन्हें जीत मिली। इस बीच गुरुंग-तमांग भी अलग हो गए। इस बार गुरुंग-तमांग को ममता सपोर्ट कर रही हैं, तो घीसिंग बीजेपी के साथ हैं।

मतुआ समुदाय के साथ सत्ता की चाबी?
इस बार पश्चिम बंगाल में सत्ता की चाबी मतुआ समुदाय के हाथ में बताई जा रही है। इनका वोट हासिल करने के लिए सभी राजनीतिक दल ठाकुर परिवार से अपनी नजदीकी को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं। क्या एक परिवार करोड़ों की संख्या वाले इस समुदाय के वोट को प्रभावित कर सकता है? इसके लिए ठाकुर परिवार के इतिहास को और नजदीक से समझना होगा।

मतुआ समाज का इतिहास
मतुआ समुदाय की शुरुआत 18वीं सदी में हुई थी। हिंदुओं की जाति प्रथा को चुनौती देने वाले इस समुदाय की शुरुआत हरिचंद्र ठाकुर ने की थी। वह क्षेत्र अब बांग्लादेश में पड़ता है। हरिचंद्र ने अपने समुदाय में अपने नैसर्गिक ज्ञान का प्रसार किया। इससे समुदाय में इनके प्रति श्रद्धा उमड़ी और लोग इन्हें भगवान का अवतार मानने लगे। इसके साथ ही मतुआ समुदाय का भी विस्तार होने लगा। बाद में ठाकुर परिवार बांग्लादेश से पश्चिम बंगाल आकर बस गया। पीढ़ी दर पीढ़ी ठाकुर परिवार समुदाय के लिए आराध्य बना रहा। बाद में हरिचंद्र ठाकुर के पड़पोते परमार्थ रंजन ठाकुर समुदाय के प्रतिनिधि बने। उनकी शादी बीनापाणि देवी से हुई थी, जिन्हें आज ‘मतुआ माता’ के नाम से जाना जाता है।

मतुआ परिवार का राजनीति में प्रवेश
आजादी के बाद इस परिवार ने साठ के दशक में राजनीति में प्रवेश किया। परमार्थ रंजन ठाकुर राज्य की नादिया सीट से विधायक बने। उनका निधन 1990 में हुआ, जिसके बाद उनकी पत्नी संप्रदाय का प्रतिनिधित्व करने लगीं। इनका भी 2019 में निधन हो गया। जहां तक इनकी राजनीतिक विचारधारा का सवाल है, वक्त के हिसाब से इनके स्टैंड में बदलाव आता रहा है। 2019 आम चुनाव में इस समुदाय ने बड़ी संख्या में बीजेपी को वोट किया था, जिससे इनके प्रभाव वाली सभी सीटों पर बीजेपी को जीत मिली थी। लेकिन उसके बाद ममता बनर्जी ने भी इन्हें अपने पक्ष में करने के लिए बहुत कोशिश की।

बीनापाणि के परिवार में ऐसे पड़ी फूट

2014 में परिवार ममता के साथ ही था। तब बीनापाणि देवी के बड़े पुत्र कपिल कृष्ण ठाकुर टीएमसी के टिकट पर आम चुनाव में उतरे थे, और उन्हें जीत मिली थी। लेकिन जब अगले साल उनका निधन हो गया, तो उनकी पत्नी ममता बाला ठाकुर को टीएमसी ने टिकट दिया और वह भी जीतीं। दरअसल, जब तक बीनापाणि देवी जीवित थीं, तब तक परिवार एक स्वर में बात करता था। लेकिन उनके बाद परिवार के अंदर सियासी स्टैंड पर भी मतभेद दिखने लगे।

इसलिए पीएम शांतनु को ले गए थे बांग्लादेश
बीनापाणि के छोटे पुत्र मंजुल कृष्ण ठाकुर बीजेपी में शामिल हो गए। इसके बाद 2019 में बीजेपी ने उनके बेटे शांतनु ठाकुर को राज्य के बनगांव लोकसभा सीट से टिकट भी दिया। वह जीते भी थे। उन्होंने ममता बाला ठाकुर को ही परास्त किया। यही कारण है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले महीने बांग्लादेश के दौरे पर गए थे, तो अपने साथ शांतनु ठाकुर को भी ले गए थे।