पेड़-पौधे पर्यावरण को शुद्ध रखने में प्रमुख भूमिका अदा करते हैं । घरों, मोटर-गाड़ियों व कल-कारखानों से निकली कार्बन-डाइऑक्साइड को ये अवशोषित करते हैं जिससे वातावरण में वायु प्रदूषण के नियंत्रण में काफी सहायता प्राप्त होती है । इस प्रकार पेड़-पौधे पर्यावरण को सीधे रूप में प्रभावित करते हैं ।
हमारी जीवन पद्धति व सरकारी नीतियाँ केन्द्रित व्यवस्था को ही बढ़ावा दे रही हैं। जिसके कारण हम आत्मकेन्द्रित होते जा रहे हैं। नतीजा है कि हम अपने से ज्यादा कुछ ना सोच पा रहे हैं ना ही धरती के पर्यावरण के लिये जो कुछ बहुत आसानी से भी किया जा सकता है वो भी नहीं कर पा रहे हैं।
हमने धरती को खोद-खोदकर खनिजों के अम्बार उसकी छाती पर खड़े कर दिये हैं। जिससे ना केवल धरती को खुद भी साँस लेना दूभर हो रहा है। उसका ओजोन आवरण भी छिद्रों वाला होता जा रहा है।
धरती की हरी चादर कमतर होती जा रही है। या फिर बाजार के अनुसार बनाई जा रही है। जो पेड़ शहरी सभ्यता को पोषित करते हैं उनको बढ़ावा दिया जा रहा है। किन्तु धरती के जीवन की रक्षा करने का सोच समाप्त होता जा रहा है।
आज हमारा भोजन अत्यन्त जहरीला हो चुका है जिसका कारण हमारी जीवन पद्धति ही है। केन्द्रित जीवन और केन्द्रित फ्लैट व्यवस्था में रहने वाला समाज अपने छोटे दायरे से बाहर भी नहीं निकल पाता और दूसरी तरफ उस उच्च और मध्यम वर्ग की सेवा मे रत निर्धन समाज मात्र ‘भोजन-आवास’ चाहे जैसा मिल जाये, उसके लिये संघर्षरत है।
स्वास्थ्य सेवाओं की शिक्षा की तो बात ही दूर है। ऐसे में पर्यावरण संरक्षण की शिक्षा उन्हें देना अजीब लगेगा। किन्तु यह उनके लिये शायद ज्यादा जरूरी है चूँकि वे साधन हीन हैं।
5 जून को संसार भर में विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। इस दिन हम सभी को यह प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि जहाँ भी जगह होगी हम वृक्षों को लगाएँगे।
पीपल, बड़, नीम, सागौन, अर्जुन, बेहड़ा, आँवला, बेल, अमरुद, नींबू, भीमल, अमरुद, कटहल, जामुन और सब चौड़ी पत्ती के पेड़ इसके और धरती के सब जीवों के जीवन रक्षा आधार है। धरती के भिन्न स्थानों पर भिन्न जाति-प्रजाति के वृक्ष-पौधे-लताएँ लुटती-मरती धरती को प्राण देने का काम कर सकते हैं। शहरों में जलस्तर तेजी से नीचे जा रहा है। पेड़ों के लगाने से पानी भी धरती में जाएगा।
बेल, नींबू, आँवला, अमरुद व पपीता इस स्वास्थ्यरक्षक पंचवटी के साथ यदि केला और पौधों में पोदीना, तुलसी, एलोविरा तथा गिलॉय की बेल जोड़ ले तो सोने पर सुहागा हो जाता है। यह सब बहुत ही कम स्थान लेने वाले होते हैं। सड़कों के किनारे, मध्यमवर्गीय सोसायटियों में यहाँ तक की फ्लैटों की बालकनी का भी सदुपयोग हो सकता है।
यहाँ यह भी बता दूँ कि देखने में यह आया है कि इन आवासीय सोसायटियों में ज्यादातर पहले तो सीमेंट बिछा दी जाती है फिर गमलों में खूबसूरत दिखने वाले पौधों को रख दिया जाता है। जिनमें बार-बार पानी देने की जरूरत होती है। यदि रसोई के पानी को थोड़ा सा फिल्टर करके कच्ची ज़मीन में लगे पौधों की सिंचाई की जाये तो चार तरह के फायदे होंगे।
पहला गन्दे पानी की मात्रा कम हो जाएगी, दूसरा धरती को भी पानी मिलेगा, तीसरा पौधों के लिये अलग से पानी नहीं लेना पड़ेगा और चौथा की दवाईयों का खर्चा कम होगा स्वास्थ्यरक्षण होगा। इस काम के लिये कोई अलग से खर्चा नहीं होगा वरन् लोगों का खर्चा कम होकर आमदनी ही बढ़ेगी।
यदि शहरों के चौराहों के बीच बने छोटे-छोटे गोलपार्कों में चौड़ी पत्ती के पेड़ किनारों पर और बीच में यह फलदार पंचवटियों का निर्माण कर दिया जाये तो वाहनों से निकलने वाला प्रदूषण तो कम होगा ही साथ में ये लाभप्रद फल भी सरकारी मालियों को अतिरिक्त लाभ में दिये जा सकते हैं। जरूरत सिर्फ यह है कि आजकल प्रचलन में आये सीमेंट व प्लास्टिक के पेड़ों को सुन्दरता का चेहरा ना माना जाये और इस प्रकार की बड़ी सोच को लिया जाये।