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जानिए कौन थे वो 51 लोग, जो आजादी के बाद जाना चाहते थे पाकिस्तान




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अगस्त यानी आजादी का महीना, 72 साल पहले जब देश को आजादी मिली तो पूरा देश खुशी से झूम उठा था। हम सभी को पता है कि भारत की आजादी से पहले देश में 565 रजवाड़े थे। इन सभी रजवाड़ो को भारत में शामिल कराने की जिम्मेदारी गृहमंत्री सरदार पटेल और वीपी मेनन की थी।

करीब करीब सभी रजवाड़े आजादी से पहले भारत में शामिल हो चुके थे पर 4 ऐसे राजा, जो अपनी रियासत को आजाद रखना चाहते थे अथवा पाकिस्तान की कूटनीति में फंस गए थे। 15 अगस्त तक इन राजाओं ने कोई फैसला नहीं किया था। इससे हुआ यह कि देश तो आजाद हो चुका था लेकिन इन रियासतों का भविष्य अनिश्चित हो गया था। ये रियासतें जूनागढ़, हैदराबाद, कश्मीर और भोपाल थे।

तो हम जूनागढ़ की वो कहानी बताने जा रहे, जो अभी तो दिलचस्प लगेगी लेकिन तब दिल दहलाने वाली थी। देश 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ। दो दिन बाद 17 अगस्त को अखबारों में छपी खबर ने देश भर में हड़कंप मचा दिया। खबर थी कि जूनागढ़ रियासत के नवाब ने सभी पहलूओं पर ध्यान से विचार करने के बाद पाकिस्तान में मिलने का फैसला किया है और इसी के साथ पाकिस्तान में मिलने का ऐलान भी कर रहे हैं।

लगभग 3337 मील वर्ग फीट जमीन पर पाकिस्तान का कब्ज़ा होगा। तब जूनागढ़ की आबादी 6 लाख 70 हजार थी और ये पूरी आबादी पाकिस्तान के हाथों का मोहरा बनने जा रही थी। ऐसा माना जाता है कि इन सब के पीछे जूनागढ़ के नवाब मोहम्मद महाबत खानजी था।

नवाब मोहम्मद महाबत खानजी दो चीजों का बड़ा शौकीन था। एक तो पशुओं (कुत्तों) से प्यार और दूसरा नाच गाना। कुत्तों से बेहद लगाव रखने वाले नवाब मोहम्मद महाबत खानजी ने अपने दो कुत्तों की शादी भी बड़ी धूम धाम से करवाई। कराची में रहने वाले महाबत खानजी के पोते जहांगीर खानजी एक टीवी चैनल से बात करते हुए कहते हैं कि नवाब साहब भैंसों को चीनी भी खिलाते थे और उन्हें गुजराती संगीत भी बेहद पसंद था।

नवाब महाबत खानजी

महाबत खानजी की इन हरकतों को भारत द्वारा नजरअंदाज किया जा रहा था। आगे भी नजरअंदाज किया जाता अगर उन्होंने पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत के साथ छल ना किया होता। इस छल की सबसे बड़ी वजह थी इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट-1947 में एक प्रावधान जिसे लैप्स ऑफ़ पैरामाउंट्सी कहा जाता था।

इस प्रावधान के तहत रियासतों को यह छूट दी गयी थी कि वे चाहे तो भारत में शामिल हों अथवा पाकिस्तान में, या फिर आजाद देश बनकर रहें। इसी का फायदा उठाते हुए मोहम्मद अली जिन्ना ने महाबत खान को 8 करोड़ रूपये का लालच दिया और पाकिस्तान में शामिल होने का न्योता दिया।

जूनागढ़ के पाकिस्तान में शामिल होने से भारत को क्या नुकसान होता, इसका जवाब इतिहासकार मृदुला मुखर्जी देती हैं। एक टीवी चैनल से बातचीत में वे बताती हैं कि दोनों देशों के बीच जूनागढ़ की अहमियत भौगोलिक रूप से काफी ज्यादा थी। जूनागढ़ की रियासत भारत के अंदर थी। अब देश के अंदर किसी दूसरे देश का हिस्सा होना, ये अपने आप में बड़ा पेंच था। जिसे सुलझाना बहुत जरूरी हो गया।

दूसरी वजह थी जूनागढ़ की हिंदू आबादी, जो कि बहुसंख्यक थी। अब किसी मुस्लिम नवाब द्वारा हिंदू बहुसंख्यक जनता के उम्मीद के विपरीत जाकर पाकिस्तान में मिल जाना अजीब भी था और अटपटा भी, पर महाबत खान ने लैप्स ऑफ़ पैरामाउंट्सी के तहत पाकिस्तान में शामिल होने की घोषणा कर दी।

17 सितंबर 1947 को राष्ट्रपति भवन में कैबिनेट की मीटिंग से पहले माउंटबेटन, जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल और वीपी मेनन की बैठक ऐतिहासिक साबित हुई। सरदार पटेल ने इस बैठक में कहा कि पाकिस्तान पर हमें सैन्य कार्रवाई करनी चाहिए। अगर हमने ऐसा नहीं किया तो आगे चलकर हमें इस नरमी की कीमत कश्मीर और हैदराबाद में चुकानी होगी।

लेकिन दूसरी ओर माउंटबेटन इस बात से सहमत नहीं थे। उनका कहना था कि जूनागढ़ पाकिस्तान के लिए एक मोहरा है। पाकिस्तान की असली नजर कश्मीर पर थी। अब अगर भारत ये कहता कि एक अल्पसंख्यक समुदाय (मुस्लिम) से आने वाला नवाब बहुसंख्यक आबादी (हिंदू) के भविष्य का फैसला नहीं कर सकता तो पाकिस्तान कहेगा कि कश्मीर में राजा हरी सिंह (हिंदू) वहां की बहुसंख्यक आबादी (मुस्लिम) के भविष्य का फैसला कैसे कर सकते हैं?

सरदार वल्लभ भाई पटेल

इस बात को समझते हुए सरदार पटेल ने माउंटबेटन की बात मानी और जूनागढ़ पर सैन्य हमला टल गया। इसी बैठक में इस बात का फैसला हुआ कि रियासत विभाग के सचिव वीपी मेनन को जूनागढ़ भेजा जाएगा, ताकि ये पता चल सके कि इस बगावत के पीछे नवाब महाबत खानजी हैं या फिर उनके दीवान शाहनवाज भुट्टो।

शाहनवाज भुट्टो इस पूरी कहानी की धुरी हैं। उनका एक परिचय तो यह था कि वे नवाब के दीवान थे, पर दूसरा परिचय यह भी है कि वे पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के पिता और बेनजीर भुट्टो के दादा थे। जूनागढ़ पहुंचने के बाद मेनन सीधे नवाब से मिलने पहुंचे, लेकिन दीवान भुट्टो ने नवाब की तबीयत का बहाना बना दिया। मेनन समझ गए कि भुट्टो बहाना बना रहे और उनका वक़्त भी जाया कर रहे हैं।

इसलिए जाते हुए मेनन ने कहा कि जूनागढ़ की जनता नवाब से नाराज है। यदि जनता द्वारा कोई भी गैरकानूनी कदम उठाया तो नवाब के पूरे राजवंश का खात्मा हो जाएगा और इसके जिम्मेदार सिर्फ आप (भुट्टो) होंगे। वीपी मेनन के जूनागढ़ जाने का कोई परिणाम निकलता, इससे पहले जूनागढ़ की दो जागीर के राजाओं ने भारत में आने की घोषणा कर दी। ये दो जागीर थे मंगरोल और बाबरियावाड़।

इससे नाराज नवाब महाबत खानजी ने दोनों जगहों पर अपनी सेना भेज दी। इधर दिल्ली में सरदार पटेल ने कहा कि यह सीधे सीधे भारत के खिलाफ युद्ध है। अब हमें किसी का इंतजार किए बगैर जूनागढ़ पर हमला करना चाहिए। मगर एक बार फिर माउंटबेटन ने सैन्य कार्रवाई से बचने को कहा और मसले को यूनाइटेड नेशन ले जाने की सलाह दी।

सरदार पटेल ने इस बार आर पार का मूड बना लिया था। उन्होंने माउंटबेटन से कहा कि दूसरे देशों के सामने अपनी साख बचाने के लिए यूएन जाएं? ये हमारी भूल होगी। हमें इसका जवाब सख्ती से देना होगा। अपने हक़ के लिए हमें किसी के सामने अर्जी देने की जरूरत नहीं है।

सरदार ने माउंटबेटन की एक ना सुनते हुए सेना को जूनागढ़ में भेजा। अब नवाब दो तरफा घिर चुके थे। उनके सामने उन्हीं की जनता का विरोध कर रही थी और भारत की सेना भी जूनागढ़ की घेरेबंदी कर चुकी थी। इससे घबराकर नवाब को पाकिस्तान भागना पड़ा। उन्होंने जाते जाते अपनी एक बीवी और बच्चे को महल में छोड़ दिया और साथ में कुत्ते लेकर गए।

अब जूनागढ़ में शाहनवाज भुट्टो बचे थे। उन्होंने पाकिस्तान से मदद मांगी लेकिन ना तो पाकिस्तान ने मदद की और ना ही कोई जवाब भेजा। थक हार कर शाहनवाज भुट्टो ने 7 नवंबर 1947 को भारत में शामिल होने की पेशकश कर दी।

फरवरी 1948 में भारत ने जूनागढ़ में रायशुमारी भी की। भारत के पक्ष में 1 लाख 19 हजार और पाकिस्तान के पक्ष में सिर्फ 51 वोट आए। यही वो 51 लोग थे जो आजादी के बाद पाकिस्तान के साथ जाना चाहते थे लेकिन उनकी मंशा पूरी ना हो सकी।