जासूसी और पाकिस्तान में जासूसी दो एकदम अलग बातें हैं. वहां भारत का जासूस पकड़ा जाए तो फौज उसे मारती नहीं, जिंदा रखती है. ऐसे कि हफ्तों में वजन आधा रह जाए. पाकिस्तान में सजा-ए-कैद, सजा-ए-मौत से बदतर है. लौटे 19 बरस हुए लेकिन अब भी शरीर और दिल पर जख्मों के गहरे निशान हैं. पढ़ें, गुरदासपुर के रॉबिन मसीह की कहानी.
इंदिरा जी के बाद की बात है. पंजाब की शामों में गुस्से का बारूद मिला होता था. तभी उससे मुलाकात हुई. पास के ही गांव में रहता था लेकिन तौर-तरीकों से पक्का शहरी. दोस्ताना अंदाज में बातें करता रहा. क्या करते हो, कितना कमाते हो, कैसे रहते हो वगैरह-वगैरह. फिर एकदम से बोला- इतनी मेहनत के बाद भी इतने पैसों में कैसे रह पाते हो. कुछ और काम करोगे!
मैंने पूछा- क्या काम?
उसने कहा- जासूसी का काम. पाकिस्तान में जाकर. मैं सकते में था. पाकिस्तान में पकड़े जाने पर हिंदुस्तानी का क्या हाल होता होगा, ये जानने के लिए ज्यादा पढ़ा-लिखा होने की जरूरत नहीं. मैं घर लौट गया.
अगली रोज काम में मन नहीं लगा. कारीगर हूं. कपड़ों पर रफू, सिलाई-कटाई करता. उस रोज बार-बार गलतियां होती रहीं. शाम को लौटते हुए वो दोबारा दिखा. जैसे मेरा ही इंतजार कर रहा हो. अगले कुछ दिनों बाद मैं ‘इंटेलिजेंस’ के अफसरों के सामने था.
महीनों ट्रेनिंग चली. कलमा पढ़ना सीखा. नमाज पढ़ने लगा. कहीं भी कोई चूक नहीं रहनी चाहिए. बाकायदा एक मौलवी ने सब सिखाया. पंजाबी कुरते छोड़कर पठानी सलवार पहली. बाल और दाढ़ियां तराशी गईं. अब बोलता तो पंजाबी में उर्दू लहजे की छौंक रहती. सिर्फ एक ही बात बदलने से मैंने इन्कार कर दिया. मैं गोश्त खाने को राजी नहीं हुआ.
ट्रेनिंग के दौरान कोड लैंग्वेज भी सिखाई गई. पाकिस्तान में ‘अपने’ लोगों से मिलने पर शुरुआती बातचीत कोड भाषा में ही होती. उसी से पक्का होता कि फलां आदमी हमारा है. मैंने सारा पाठ खूब अच्छे से रटा. पूरे वक्त जहन में यही बात थी कि मैं अपने वतन के लिए तैयार हो रहा हूं. जान का खतरा तो था लेकिन ‘कंपनी’ वालों ने यकीन दिलाया कि मुझे कुछ हो गया तो वे परिवार की देखभाल करेंगे.
मेरा नामकरण भी हुआ. रॉबिन छोड़कर अनवर बन गया. कंपनी के साथी अनवर बुलाने लगे. इसकी भी प्रैक्टिस हुई कि रॉबिन अनवर पुकारे जाने पर ही जवाब दे. मैं रॉबिन को पूरी तरह भूल गया.
अब पाकिस्तान जाना था. बिना पासपोर्ट-वीजा के. देर रात जम्मू-कश्मीर के कठुआ पहुंचे. रास्ता बनाया गया और हम पाकिस्तान में थे. गहरी अंधेरी रात. झींगुर बोल रहे थे. हमें सुबह होने से पहले वहां के अपने ठिकाने पहुंचना था.
रॉबिन याद करते हैं- पाकिस्तान में पांचों वक्त की नमाज करता और शहर-शहर घूमा करता. रेलगाड़ी में बैठा. बस-ट्रक में भी घूमा. किसी को शक नहीं हुआ. पहली बार कुछ दिनों तक रहकर वापस लौट आया. जिस काम से भेजा गया था, वो काम बखूबी पूरा करके. इसके बाद भी 10 बार पाकिस्तान जाना हुआ. कभी कोई कागज लाने. कभी किसी जगह की तस्वीर लाने. मैं हर बार सही-सलामत लौट आता.
23 मई, 1990. मैं फौजियों के बीच था.
कागज खा चुका था. कोई और चीज मेरे पास थी नहीं. पहले कुछ महीने टॉर्चर का दौर चला. फौजियों ने खूब पिटाई की. पूरा शरीर नीले-काले निशानों से भर गया. उसपर मरहम की तरह नमक छिड़कते. सोओ तो सिर पर पानी डाल दें. उल्टा लटकाकर पीटा गया. कुर्सी पर हाथ-पैर बांधकर शॉक दिया गया. होश आया तो दिमाग एकदम सुन्न था. यकीन करने में वक्त लगा कि अब भी जिंदा हूं.
शायद नींद और दर्द की झोंक में ही एकाध बात मैंने बता दी. जैसे पाकिस्तान आने के रास्ते के बारे में. बाकी समय मैं चुप रहा. देश में मिली ट्रेनिंग ने इतना पक्का कर दिया था.
10 साल की कैद-ए-बामशक्कत हुई. तीन अलग-अलग जेलों में रहा. एक जेल में खतरनाक कैदियों के बीच रखा गया. कई-कई हत्याओं और बलात्कार के दोषी. मेरी कोठरी सबसे अलग थी. छह फुट ही लंबी-चौड़ी कोठरी में दिन में भी गहरा अंधेरा होता. वहीं पर लैट्रिन-बाथरूम. कई दिनों बाद आंखें रात और दिन का फर्क करने की आदी हो सकीं.
कोठरी पर हर वक्त लटकता मोटा ताला मानो कम हो, पैरों में बेड़ियां डाल दी गई. लोहे की मोटी बेड़ियां. चलूं तो शरीर के साथ वो भी घिसटें. रातों को सिसकता तो बेड़ियां भी साथ-साथ डोलतीं. पूरी जेल मेरी बेड़ियों की सिसकी से गूंज जाती. चार साल तक वो बेड़ियां मेरे शरीर का हिस्सा रहीं.
जब यकीन हो गया कि अब ये कैदी भाग नहीं सकता, बेड़ियां खोल दी गईं. बेड़ियां जख्मों में बदलीं और जख्म निशान में. पाकिस्तान से लौटने के 19 साल बाद भी वो निशान पक्के हैं.
अंधेरे और बदबू से सनी उस कोठरी में सोता तो पंजाब याद आता. मेरा घर. मेरे पिता. दोनों बहनें. घर के आसपास खेतों की हरियाली. उन खेतों में उपजा देसी खाना.
यहां सुबह एक गिलास चाय के साथ रोटियों के दो टुकड़े मिलते. दो आधी-आधी रोटियां. कई बार गोश्त पका करता. मैंने मना किया तो मुझे दाल-रोटी मिलने लगी. मेरे जैसे 25 कैदी और रहे होंगे. पचीस-एक कैदियों के लिए किलोभर दाल. कभी-कभार आलू भी मिल जाता. तब खाने में अलग ही स्वाद आता था.
10 साल की कैद 14 सालों में बदल गई. कभी कागज नहीं होते थे, कभी उनपर दस्तखत करने वाले अफसर. लौटा तो पादरी पिता बूढ़े हो चले थे. चर्च जाकर जो थोड़ा-बहुत कमाते, उससे ही घर का खर्च चलता. मैंने हाथ बंटाने की सोची. पुराने काम में हाथ लगाया लेकिन सुई पकड़ूं तो ऊंगलियां कांपने लगतीं.
शरीर के पुर्जे-पुर्जे में पाकिस्तान की जेल पसर चुकी थी. कोशिश की, लेकिन कहीं काम नहीं बना. किसी काम में ताकत लगती थी तो किसी काम में तेज आंखें और फुर्तीली ऊंगलियां चाहिए थीं.
अब घरों-दुकानों में रंगाई-पुताई का काम करता हूं. बाकी वक्त में मंत्रियों, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को चिट्ठियां लिखता हूं.
बताता हूं कि कैसे एक मासूम जवान कारीगर को ‘फुसलाकर’ जासूस बनाया गया. कैसे बड़े-बड़े सपने दिखाए गए. कैसे वो सालों पाकिस्तानी जेल में सड़ा. वापस लौटने पर कैसे अपने परिवार को बेटा खोने और गरीबी से जूझता पाया. आज तक किसी चिट्ठी का कोई जवाब नहीं मिला. जिन अफसरों ने ट्रेनिंग दी थी, वो पता नहीं कहां गायब हो गए. पूछने पर एक बार किसी नेकदिल अफसर ने बताया- ‘तुम्हें काम देने वाला अफसर मर चुका है’.
रॉबिन इंटरव्यू के दौरान बार-बार कागज और चिट्ठियां भेजने की बात कहते हैं. बात पूरी होते ही एक के बाद एक दर्जनों चिट्ठियां whatsapp की जाती हैं, जो नेताओं को लिखी गई हैं.
मायूसी में डूबी हुई आवाज आती है – ‘पापा ने चर्च का काम छोड़ दिया है. वो अब देख नहीं सकते. बहनें शादी के इंतजार में बुढ़ा गईं. और मैं वादे पूरे होने के इंतजार में. 56 का हूं. बाल-दाढ़ी सबपर दिन का उजाला छिटक गया है. गांव-शहर के लोग कहानी सुनने आते हैं. सुनते हैं. आहें भरते हैं और लौट जाते हैं. गुरबत में ही सही, वतन को मैंने 14 साल दिए थे. उस बीते वक्त की भरपाई कोई नहीं करता.’