आधुनिकता और फिल्मी जिंदगी के साथ-साथ सोशल मीडिया लोगों के जीवन पर बड़ा असर डाल रहा है। इसके कई सकारात्मक परिणाम देखने को मिल रहे हैं, वहीं आधुनिक ट्रेंड व बदलाव के चलते कुछ परंपरागत सामाजिक मूल्य व लोक संस्कृति की क्षति हो रही है। फैशन की अंधी दौड़ के चलते छत्तीसगढ़ी लोकनृत्यों की वेशभूषा पर गहरा प्रभाव डाला है।
राज्य के प्रसिद्ध कर्मा, सरहुल, काकसार,दण्डारी, परब, सुआ और गवर नृत्य के वेशभूषा में काफी परिवर्तन आया है। वर्तमान में नृत्यकर्ताओं द्वारा पारंपरिक आभूषणों व वस्त्रों का उपयोग न कर आर्टिफिशियल चीजों का उपयोग किया जा रहा है। इसके कारण इन नृत्यों का भाव और कलाकारों की सुंदरता में कमी आ गई है। छत्तीसगढ़ में ये नृत्य सालभर अनेक त्योहारों में की जाती है। जो सदियों से चली आ रही है।
लोकनृत्य की वेशभूषा से संबंधित एक रिसर्च में इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ के विद्यार्थियों ने की है। जिसके अनुसार राज्य के मैदानी और पठारी क्षेत्रों के लोकनृत्यों में वेशभूषा की कमी देखी गई। अगर यही स्थिति रही तो भविष्य में छत्तीसगढ़ी लोकनृत्यों की वेशभूषा विलुप्तता के कगार पर पहुंच जाएगी।
रिसर्चर दीपशिखा पटेल ने बताया कि लोकनृत्य और वाद्ययंत्रों के अनुरूप वर्तमान वेशभूषा नहीं है। यह रिसर्च राज्य के बस्तर,सरगुजा और मैदानी इलाकों में किया गया, इसे पूरा करने में 5 साल का समय लगा। राज्य की संस्कृति को बचाए रखने के लिए बड़े मंच में इन नृत्यों की प्रस्तुति होनी चाहिए। जिसे देख दूसरे नृत्यकर्ता सीखें। इसके अलावा सरकार को नृत्यों से संबंधित आभूषणों को संरक्षित रखने के लिए नृत्यकर्ता को मदद दी जानी चाहिए।
रिसर्च के अनुसार लोकनृत्यों की वेशभूषा में अंतर
सुआ नृत्य
पारंपरिक – हाथ में ऐठी, हरैय्या, कमर में करधन, पैर में पैजन और हरे रंग की साड़ी घुटने से थोड़ा नीचे।
वर्तमान – ऐठी और करधन नहीं पहने रहे हैं, पैजन के बदले पायल और साड़ी पैर तक पहनी जा रही है।
मांढर नृत्य
पारंपरिक – पुरुष धोती, कुर्ता, सलूखा और साफा पहनते है,वही महिलाएं साड़ी पहनती हैं,आभूषण में बिचौली,सुतिया और रुपए पहनते हैं।
वर्तमान – पुरुष कुर्ता पहन रहे हैंं,आभूषण में प्लास्टिक का मूंग माला और अधिकांश आभूषण आर्टिफिशियल।
दण्डारी नृत्य
पारंपरिक- पुरुष अनेक रंगों की धोती डबल परत कर पहनते हैं, कमरबंधी, हाथ में कड़ा और गले में माला होती है।
वर्तमान- शार्ट कुर्ता या बनियान पहनने लगे हैं, गमछा का उपयोग बढ़ा, आभूषण पूरी तरह गायब।
सरहुल नृत्य
पारंपरिक – हाथ से तैयार साड़ी (सरूहा चिथरी) पहनते हैं।कान में कर्णफूल (बीणियो), बालों में बगुला के पंख।
वर्तमान – कोई भी साड़ी और पुरूष कमर में चुब्बा (झोल) बांध रहे हैं।
काकसार
पारंपरिक – पुरुष लहंगा,सिर में साफा, जंगली सूअर दांत का माला, वजनदार घुंघरू और पक्षियों के पंख।
वर्तमान – नहीं के बतौर लेकिन बीहड़ क्षेत्रों में थोड़ी बहुत दिखती है।
– हमारे विद्यार्थियों ने राज्य के लोकनृत्यों की वेशभूषा पर एक रिसर्च किया है। जिसमें पाया गया है कि लोकनृत्य के पांरपरिक आभूषण और वस्त्रों का उपयोग नही किया जा रहा है। अगर यही स्थिति रही तो वेशभूषा विलुप्तता के कगार पर पहुंचने की संभावना है।