रायपुर
सुकमा के दर्रेम मुठभेड़ में सुरक्षाबलों के 22 जवान शहीद हुए हैं। नक्सलियों की गुरिल्ला टीम ने सीआरपीएफ, डीआरजी और एसटीएफ के जवानों पर हमला किया था। इस हमले के बाद एक सवाल उठ रहे हैं कि क्या देश में वामपंथी उग्रवाद चरम पर है। छत्तीसगढ़ में घटित हालिया घटनाओं से यहीं संकेत मिल रहे हैं।
नक्सलियों के नंबर वन बटालियन के कमांडर माडवी हिडमा ने अपने 400 लोगों के साथ सुरक्षाबलों पर सीधे आधुनिक हथियारों से हमला कर दिया। उनके पास रॉकेट लॉन्चर, असॉल्ट राइफल और इंसास भी हैं। इसका नमूना उस वीडियो में भी देखने को मिला है, जब नक्सली कोबरा कमांडो को लोगों के बीच छोड़ रहे थे। इस मुठभेड़ में यह बात सामने आई है कि नक्सली तकनीकी रूप से पहले से ज्यादा दक्ष हुए हैं। वह सुरक्षाबलों से सीधी लड़ाई के लिए तैयार हैं। नक्सली अब रणनीति के तहत सुरक्षाबलों से भिड़ते हैं।
जानकार बताते हैं कि बीते कुछ समय में नक्सलियों को भारी नुकसान हुआ है, लेकिन वह हर समय छत्तीसगढ़ के जंगली क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों के सहारे वापसी करते हैं। एक पूर्व नक्सली कमांडर, जिन्होंने तेलंगाना पुलिस के समक्ष 2017 में सरेंडर कर दिया है। उन्होंने बताया कि नक्सली सुरक्षा बलों पर हमला करने से पहले आसपास के गांवों को 20-30 मिनट पहले खाली करा देते हैं, यह स्थानीय लोगों के सपोर्ट के बिना संभव नहीं है। उनके पास एक मजबूत सूचना तंत्र होता है।
अभी हाल ही में हुए सुकमा एनकाउंटर के दौरान भी यह देखने को मिला है। एनकाउंटर स्थल के आसपास स्थित गांव के लोगों ने गांव खाली कर दिया था।
सवाल है कि इतने झटकों के बावजूद नक्सली अपनी ताकत कैसे बरकरार रखने में काफी हद तक कामयाब रहते हैं। कई असफलताओं के बावजूद वह एक मजबूत स्थित में हैं। खासकर छत्तीसगढ़ के इलाकों में। इसके लिए आपको छत्तीसगढ़ और उसके पड़ोसी राज्यों में चल रहे नक्सली आंदोलन के अतीत में जाना होगा।
2005 से पहले तेलंगाना और आंध्र के जिलों में शामिल नालमाला के जंगल में माओवादियों के अभेध किले थे, तब ये लोग पीपुल्स वार के नाम से जाने जाते थे। कमोबेश छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ क्षेत्र में भी यहीं स्थिति है, जहां सुरक्षाबलों की पहुंच न के बराबर है। इन इलाकों में नक्सलियों और सुरक्षाबलों में मुठभेड़ आम बात है।