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क्या रूसी सेना से बेहतर है यूक्रेन की सेना, या बेबुनियाद हैं कुछ संकेत?




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रूस यूक्रेन युद्ध (Russia Ukraine War) में वैसे तो रूस की सेना (Russian Army) का पलड़ा भारी लगता है. देखने में आ रहा है कि यूक्रेन की सेना (Ukrainian Army) भी कम नहीं है. वह कई मोर्चों पर यूक्रेन की सेना को एक साथ कांटे की टक्कर दे रही है. कई विशेषज्ञों का कहना है कि आठ साल पहले जब रूस ने क्रीमिया पर कब्जा किया था, तब यूक्रेन की सेना की काफी कमजोर थी, लेकिन अब हालात बहुत ही ज्यादा बदले हुए हैं.

हाइलाइट्स

8 साल पहले रूस के क्रीमीया पर हमले के समय यूक्रेनी सेना बहुत कमजोर थी.
इस बार यूक्रेन को पश्चिमी देश और यूरोप का पूरा सहयोग मिल रहा है.
कई विशेषज्ञों का मानना है कि रूसी सेना पर अब यूक्रेन का पलड़ा भारी पड़ रहा है.

रूस यूक्रेन युद्ध (Russia Ukraine War) अब रणनीतिक स्तर पर ज्यादा सक्रिय हो गया है. हाल की घटनाओं में दो दिन पहले यूक्रेन (Ukraine) और क्रीमिया के बीच स्थित पुल पर हुआ धमाका सबसे बड़ी घटना रही. इससे दोनों पक्षों के बीच आरोप प्रत्यारोप का दौर भी देखने को मिला. अभी के हालात तो यही बताते हैं कि युद्ध लंबे खिंच तो रहा ही है, इसे लंबा खींचा भी जा रहा है. रूस किसी निर्णायक कार्रवाई की जल्दी में नहीं है. तो क्या दोनों तरफ अभी बराबर की लड़ाई हो रही है या फिर यूक्रेन की सेना (Ukrainian Army) रूस पर वाकई भारी पड़ती दिख रही है जैसा कि पश्चिमी देश (Western Countries) दावा कर रहे हैं.

एक तरफा नहीं है ये युद्ध
फिलहाल रूस के कब्जे वाले पूर्वी यूक्रेन के इलाकों को जनमत संग्रह के जरिए रूस में शामिल कर लिया गया है जिसे पश्चिमी देशों से मान्यता नहीं मिली है. लेकिन इन इलाकों के अलावा रूस को यूक्रेन से कड़ा मुकाबला देखने को मिल रहा है. यह भी जानना जरूरी होगा कि पश्चिमी देशों और यूरोप की मदद ने यूक्रेन को कितना ताकतवर बनाया है और रूस के लिए यूक्रेन को सबक सिखाना कितना मुश्किल कर दिया है.

8 साल पहले
जब साल 2014 में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने अपनी सैनिकों को यूक्रेन में सबसे पहले क्रीमिया और फिर डोनबास की पूर्वी सीमा पर भेजा था, तब बेशक रूस की सेना बहुत ही बेहतर थी और यूक्रेनी सेना पर हर तरह से भारी थी और नतीजा भी उम्मीद के मुताबिक ही देखने को मिला था. लेकिन आठ साल बाद स्थितियां बदल गई हैं.

क्यों बदले हालात
यह सच है कि रूस की ताकत तो कम नहीं हुई, लेकिन युक्रेन की सेना भी उतनी कमजोर नहीं रही जितनी 8 साल पहले थे. इसके कई कारण बताए जा रहे हैं. इसमें सबसे बड़ा कारण है कि यूक्रेन को उसके साथियों से भारी मदद मिल रही है. जिसमें अमेरिका ब्रिटेन सहित बहुत से पश्चिमी देश और यूरोप के कई देश शामिल हैं.  इन देशों से यूक्रेन को हथियार, इंटेलीजेंस सहयोग, नियोजन सहायता, नुकसान की भरपाई के लिए आर्थिक सहायता, यूक्रेन छोड़ने वालों के लिए हर तरह की मदद मिल रही है.

क्षमताओं में दिख रहा है भारी अंतर
ब्लूमबर्ग के लेख के मुताबिक ऐसा लग रहा है कि 8 साल बाद हालात पलट गए हैं. जहां एक तरफ यूक्रेन को भरपूर मदद मिल रही है. रूसी सेना के जनरल गलती पर गलती कर रहे हैं. विशेषज्ञों ने यह भी देखा है कि दोनों ही सेनाओं का लड़ने का तरीका भी बहुत अलग तरह का है जिसका युद्ध के मैदान पर गहरा असर भी देखने को मिल रहा है.

पिछड़ती हुई रूसी सेना
सितंबर में खारकीव में, डोनबास के उत्तर पूर्वी इलाकों की ओर यूक्रेनी सेनाएं तेजी से, संयुत बल वाले ऑपरेशन करने में सफल रही.  इस दौरान उन्होंने रूसी विरोधियों के मुकाबले शानदार प्रदर्शन किया था. वहीं इसी अप्रैल में  दक्षिणी खेरसोन इलाके मे यूक्रेन ने एक तीसरा बड़ा मोर्चा खोला जिसके बाद रूसी सेना को पीछे हटना पड़ा था. अब पुतिन के बनवाए यूक्रेन क्रीमिया पुल पर विशाल विस्फोट हुआ है.

बदलाव जारी है
रूसी सेना के खराब प्रदर्शन का रूस में भी असर दिख रहा है. पुतिन को सेना के प्रमुखों को बदलना पड़ रहा है. 2015 के बाद से यूक्रेन की सेना ने भी खुद में बहुत बदलाव किए हैं. भ्रष्टाचार पर लगाम लगी है. यूक्रेन  में रूस के प्रति समर्थन नहीं रहा. पुराने रूसी समर्थक हाशिये पर चले गए हैं. लोगों को रूस की इरादा पूरे यूक्रेन पर कब्जा करने का दिख रहा है. बाद में सेना में प्रशासनिक बदलाव हुए है. नाटो से जुड़ने के बाद और ज्यादा  बेहतरी आने की उम्मीद है.

बेशक यूक्रेन युद्ध अब किसी भी तरह से एक तरफा नहीं हैं. यूक्रेन ने नाटो में शामिल होने का फैसला कर लिया है और उसकी प्रक्रिया जल्द से जल्द शुरू करना चाहता है. वहीं रूस अकेला पड़ता जा रहा है. इस युद्ध की शुरुआत से ही माना जा रहा था कि यह लंबा चलेगा और सब जानते हैं कि पुतिन इसे बखूबी समझते हैं. ऐसे में किसी भी सेना का किसी मोर्चे से पीछे हटना रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है. जो भी इसका युद्ध का नुकसान दुनिया के बाकी देश झेल रहे हैं.

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