


Mohammed Rafi Birth Anniversary: हिंदुस्तान के शहंशाह ऐ तरन्नुम के नाम से जाने जाने वाले मोहम्मद रफी की आज 98वें बर्थएनिवर्सरी है. उनके अमर गानों के जरिए संगीत की विरासत को धनी बनाने वाले मोहम्मद रफी ने अपने करियर में 14 भाषाओं में 4 हजार से ज्यादा गानों को अपनी आवाज से तराशा है. चौदवीं का चांद हो या फिर चाहूंगा मैं तुझे जैसे गानों को अमर करने वाले मोहम्मद को ऊपरवाले ने सुरों का सम्राट बनाकर भेजा था. महज 13 साल की उम्र से ही लोगों के कानों में शहद घोलने वाले रफी साहब ने भारतीय संगीत को सींचकर एक विशाल वृक्ष बनाया है. उसी वृक्ष छाया में आज भी लोग अपने कानों को ठंडक पहुंचाते हैं.
मुंबई. बॉलीवुड के दिग्गज सिंगर मोहम्मद रफी की आज 98वें बर्थ एनिवर्सरी है. साल 1924 में आज के ही दिन अमृतसर के कोटला सुल्तान सिंह में रहने वाले हाजी अली मोहम्मद के घर किलकारी गूंजी थी. नन्हे रफी की किलकारी को तब कौन जानता था कि यही बच्चा एक दिन शहंशाह ऐ तरन्नुम कहलाएगा. मोहम्मद रफी अपने घर में दूसरे बच्चे थे. मोहम्मद रफी का बचपन माता-पिता और बड़े भाई हामिद रफी के साथ बीतने लगा. रफी जब महज 7 साल के थे तो उनका परिवार काम के सिलसिले में लाहौर आ गया. मोहम्मद रफी के बड़े भाई लाहौर में नाई की दुकान चलाते थे.
जिंदगी में सूफी फकीर ने घोला गायकी का रस
मोहम्मद रफी का मन पढ़ाई लिखाई में ज्यादा नहीं लगता था इसीलिए कच्ची उम्र से ही भाई के साथ दुकान में हाथ बंटाते थे. रफी जब रब की बनाई दुनिया के तौर तरीके सीथ रहे थे इसी दौरान उनके जीवन में एक सूफी फकीर फरिश्ता बनकर आया. ये फकीर गली में गाकर गुजरा करते थे. फकीर की मधुर आवाज मोहम्मद रफी के अंदर फूट रही कला को आकर्षित करती थी और वे भी फकीर के पीछे-पीछे गली के चक्कर लगाया करते थे. फकीर से ही प्रेरणा लेकर मोहम्मद रफी ने उनकी नकल करना शुरू कर दिया. फिर क्या था. कला ने अपना करिश्मा दिखाया और रफी की नन्ही पतली आवाज लोगों के कानों में शहद घोलने लगी.
आवाज की दीवानगी में ग्राहकों ने बढ़ाया उत्साह
मोहम्मद रफी की दुकान में बाल कटाने आते ग्राहक उनकी आवाज के दीवाने होने लगे. रफी की कला को देखकर उनके भाई ने भी उन्हें संगीत में जाने के लिए प्रेरित किया और उन्हें उस्ताद अब्दुल वाहिद खान के पास संगीत की तालीम के लिए भेज दिया गया. यहीं से रफी के सुरों में धार पड़ने लगी और इस धार की खनक पूरे देश में गूंज गई. रफी अपने सुरों को साधते 13 साल के हो गए और वो संयोग आ गया जिसने रफी को करियर में पहला पायदान दिया.
बात है साल 1931 की. लाहौर में आकाशवाणी पर प्रसिद्ध गायक कुंदन लाल सहगल को गाने के लिए आमंत्रित किया गया था. खबर मिलते ही सहगल को सुनने के लिए वहां लोगों का हुजूम लग गया. अचानक बिजली चली गई और कुंदन लाल सहगल ने गाना गाने से इंकार कर दिया. यही वो घड़ी थी जब रफी को ऊपरवाले ने मौका दिया था. मोहम्मद रफी के बड़े भाई ने आयोजकों ने निवेदन कर रफी को गाने का मौका देने के लिए तैयार कर लिया. 13 के नन्हे रफी जब पहली बार स्टेज पर चढ़े तो लोग हैरान रह गए. इसके बाद रफी ने गाना शुरू किया और चारों तरफ उनकी आवाज गूंजने लगी. जिसने भी रफी को सुना वो सुनता ही रह गया. गाना पूरा होने के बाद लोगों ने जमकर तालियां पीटीं. इसके बाद रफी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.
साल 1944 में मोहम्मद रफी को पंजाबी फिल्म गुल बलोच में गाना गाने का मौका मिला. इसके बाद रफी ने साल 1946 में मायानगरी मुंबई का रुख कर लिया. मुंबई में संगीत की साधना शुरू करने वाले मोहम्मद रपी को संगीतकार नौशाद ने मौका दिया और पहले आप फिल्म में गाना गवाया. इसके बाद मोहम्मद रफी महानता के महल में पहली ईंट लग गई. इसके बाद रफी ने फिल्मों में गाना शुरू कर दिया और अनमोल घड़ी, मेला, दुलारी और शहीद जैसी फिल्मों में कई हिट गाने दिए. इसके बाद मोहम्मद रफी ने दिलीप कुमार और देवानंद जैसे सुपरस्टार्स के लिए गाना शुरू कर दिया. बस यहीं से सितारों का आना शुरू हो गया और देखते ही देखते मोहम्मद रफी खुद एक सितारा बन गए.
गाए एक से बढ़कर एक गाने
चौदहवीं का चांद हो, मेरे महबूब तुझे मेरी मुहब्बत की क़सम, चाहूंगा में तुझे , छू लेने दो नाजुक होठों को जैसे कई अमर गाने देने वाले रफी साहब 31 जुलाई 1980 को इस दुनिया में अपनी अमिट छाप छोड़कर अलविदा कह गए. मोहम्मद रफी ने अपने करियर में हिंदी के अलावा असामी, कोंकणी, भोजपुरी, ओड़िया, पंजाबी, बंगाली, मराठी, सिंधी, कन्नड़, गुजराती, तेलुगू, माघी, मैथिली, उर्दू, के साथ साथ इंग्लिश, फारसी, और अरबी भाषा में 4516 से ज्यादा गानों को अपनी आवाज से तराशा है. मोहम्मद रफी के कई गाने आज भी लोगों के कानों को वही ठंडर पहुंचाते हैं. आज मोहम्मद रफी की बर्थएनिवर्सरी पर सिनेमा के दिग्गजों ने उन्हें याद किया है.