शायद आपातकाल न आया होता तो दुष्यंत अपनी रौ में कविताएं लिखते रहते जैसा वे ‘आवाजों के घेरे’ में लिख रहे थे. ‘सूर्य का स्वागत’ में लिख रहे थे. दुष्यंत कुमार आपातकाल की पैदाइश थे. वे कविता में एक बड़ी आवाज की तरह उभरे थे. दुष्यंत कुमार आम आदमी के शायर हैं, यह कहने में गुरेज
Dushyant Kumar Birth Anniversary: ग़ज़लों की एक लंबी परंपरा है जो हिंदी जबान में देर से पहुंची या पहुंची तो अपनी अलग ही आभा के साथ. हिंदी में भारतेंदु हरिश्चंद ने ग़ज़लें लिखीं, निराला ने लिखीं, त्रिलोचन ने लिखीं, शमशेर ने लिखीं और हाल तक 99 वर्षीय रामदरश मिश्र लिख रहे हैं. उर्दू फारसी की परंपरागत काव्यशैली ग़ज़ल अब दरबारे खास नहीं दरबारे आम की विधा बन चुकी है. यह कविता से ज्यादा ग़ज़लों का दौर है. आप हारे थके हैं, अवसाद से घिरे हैं, किसी ओज और उदात्त भरे शायर का एक शेर आपके भीतर चिनगारी फूंक देगा और आप तरोताजा महसूस करेंगे. आप मुहब्बत में धोखा खाए हुए हैं, एक से बढ़ कर एक शायरी मौजूद है कि आप यूट्यूब पर कोई गजल लगा लें, किसी शायर को उठा लें पढ़ने के लिए और देखेंगे कि आपकी मुहब्बत में ग़ज़ल का रसायन घुल रहा है और आप उस अवसाद से बाहर आ रहे हैं.
हमारी अंदरूनी किसी भी चोट का उपचार है शायरी. पिछले कई दशकों से ग़ज़ल में दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी का नाम सर्वेापरि रहा है. ऐसा नहीं है कि इनके पाये के और शायर हमारे बीच नहीं आए, पर यह भाग्य की बात है कि किसका नाम जनता की जबान पर चढ़ जाता है.
एक अच्छा शायर सबका होता है. वह किसी भी मत मतांतर का व्यक्ति हो, उसके घाव पर मरहम का काम करता है. दुष्यंत कुमार आपातकाल की पैदाइश थे. वे कविता में एक बड़ी आवाज की तरह उभरे थे. आवाजों के घेरे, जलते हुए वन का बसंत और सूर्य का स्वागत. गद्य में भी आंगन में एक वृक्ष के वे जाने पहचाने गए. किन्तु ‘साये में धूप’ में प्रकाशित होने के बाद तो उनकी सारी लोकप्रियता का वृत्त सिमट कर जिस एक केंद्र या बिन्दु में समाहित होता गया वह ‘साये में धूप’ की ग़ज़लें थीं. महज 64 पेजी इस पुस्तिका के अब तक कितने ही संस्करण छप चुके हैं. हिंदी ग़ज़ल में भी एक से बढ़ कर एक नाम हमारे सम्मुख हैं. तमाम तेवर एक साथ ग़ज़ल के फार्मेट में मौजूद हैं किन्तु आज भी दुष्यंत कुमार की ग़जलें होठों पर आ धमकती हैं.
दुष्यंत कुमार आम आदमी के शायर हैं, यह कहने में गुरेज नहीं. उन्हें पढ़ते हुए हमें किसी शब्दकोश की जरूरत नहीं पड़ती. जनता-जनार्दन तो अपनी ही भाषा में कविता समझती है. बड़े से बड़े कवि हमारे बीच पैदा हुए, पढ़े भी गए किन्तु तुलसी का जिस तरह बोलबाला समाज में रहा है वैसा न कबीर का हुआ न केशव का. न सूर का न जायसी का. तुलसी समय-समय पर काम आने वाले कवि हो गए. हर समय, हर मिजाज, हर बात के लिए तुलसी के यहां अनुभव से कमाए सूक्त हैं, जो हारे हुए में भी दम भर दे. दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी के बारे में भी यह सच है.
दुष्यंत कुमार कोई ग़ज़ल लिखने के लिए नहीं पैदा हुए थे. ग़ज़ल तो उनके पहले से लिखी जा रही थी, वह उर्दू ग़ज़लों की लीक पर चल ही रही थी. कुछ नया प्राण हिंदी के कवि उसमें फूंक रहे थे. अदम गोंडवी तो बहुत ही कम पढ़े लिखे थे. पर आम आदमी की दुख-तकलीफ कहने का सलीका उन्होंने सीख लिया तो अपनी खेती-किसानी की तरह शायरी की फसलें उगाते रहे और देखते ही देखते शायरी की दुनिया में छा गए. इन दोनों शायरों की ग़ज़लों पर हिंदी-हिंदुस्तानी का पानी था जो अलग लबो-लहजे की बात करता था. वह इसे उर्दू की रवायती ग़ज़लों से अलग करता था. दोनो शायरों ने यही किया कि अपनी ग़ज़ल के कथ्य और अंदाजेबयां को परंपरागत शायरी से बदला. बिना रास्ता बदले वे अलग से पहचाने नही जा सकते थे.